भारत और अमेरिका के बीच शुल्क के मसले पर जिस तरह खींचतान की स्थिति बन गई है, उसमें भारत के सामने निश्चित रूप से नई चुनौतियां खड़ी हुई हैं। मगर यह भी सही है कि भारत इससे निपटने के लिए सभी मौजूद वैकल्पिक रास्ते अपना रहा है, नए उपाय निकाल रहा है, ताकि अमेरिकी शुल्क थोपे जाने का देश पर कोई बड़ा असर न पड़े। इसके समांतर शुल्क नीति से उपजे दबाव में आने के बजाय भारत ने अमेरिका के सामने भी अपने फैसले पर फिर से विचार करने का विकल्प खुला रखने का मौका छोड़ा हुआ है।
यही वजह है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बार-बार शुल्क लगाने और इसके परिणाम भारत पर पड़ने का हवाला देने के बावजूद ऐसी गुंजाइश बनाने की कोशिश करते दिख रहे हैं कि दोनों देशों के बीच संवाद बहाल हो और कोई नया रास्ता निकले। गौरतलब है कि पचास फीसद शुल्क लगाने का अमेरिकी फैसला लागू हो चुका है और अब भारत के सामने इससे उपजी नई परिस्थितियों से निपटने की चुनौती है। जाहिर है, अब इसी को ध्यान में रखते हुए भारत को आर्थिक और कूटनीतिक स्तर पर कदम उठाने की जरूरत है।
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इसी क्रम में शुल्क लगाए जाने के असर को कम करने के लिए सरकार की ओर से बहुस्तरीय प्रयास जारी हैं। मगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खड़ी होने वाली तात्कालिक बाधाओं के बरक्स दीर्घकालिक दृष्टि से समस्या का समाधान निकालना वक्त की जरूरत होती है। यह अमेरिका भी समझता है कि शुल्क लगाने का असर फिलहाल भारत पर जो भी पड़े, लंबे समय में इसके नुकसानों से वह भी अछूता नहीं रहेगा। शायद इसीलिए इस मुद्दे पर टकराव की स्थिति खड़ी हो जाने के बाद अब अमेरिका की ओर से भी समाधान के लिए कदम बढ़ाने के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं।
दोनों देशों में उच्चस्तर से इस बात की संभावना जताई गई है कि भारत और अमेरिका के बीच संवाद के रास्ते खुले हैं और शुल्क मुद्दे को सुलझाने के प्रयास जारी रहेंगे। खुद अमेरिकी वित्त मंत्री ने द्विपक्षीय संबंधों के बारे में कहा कि निश्चित रूप से यह एक ‘उलझा हुआ मामला’ है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों देश ‘आखिरकार’ एक साथ आ जाएंगे। इसी तरह, यह भी माना जा रहा है कि भारत और अमेरिका के बीच दीर्घकालिक संबंधों का यह एक अस्थायी दौर है।
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इसमें कोई दोराय नहीं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग देशों और उनसे बने घोषित-अघोषित समूहों के बीच हितों के सवाल खड़े होते रहते हैं और कई बार प्रतिद्वंद्विता और इससे आगे टकराव के हालात भी पैदा होते हैं। इस लिहाज से देखें, तो भारत और अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता के किसी सकारात्मक निष्कर्ष तक पहुंचने को लेकर अब भी उम्मीद बनी हुई है। हालांकि अमेरिका ने भारी शुल्क लगाने की रणनीति का सहारा शायद इसीलिए लिया, ताकि वह व्यापार वार्ता में अपने हित में फैसले लिए जाने के मसले पर भारत पर दबाव बना सके। इसी कड़ी में रूस से तेल खरीदने पर जुर्माने के तौर पर शुल्क का फीसद बढ़ाने का फैसला भी शामिल था।
हालांकि रूस से तेल खरीद को लेकर अमेरिका अपने और अन्य देशों के संदर्भ में खुद ही विरोधाभासी नीतियां अपनाने के आरोप में घिरा है। अमेरिका और भारत के बीच हाल के वर्षों में जिस तरह के समीकरण बने थे, उसका स्वरूप दोनों पक्षों के दीर्घकालिक हित सुनिश्चित करना था। जरूरत इस बात की है कि अमेरिका तात्कालिक हितों को प्राथमिकता देने के बजाय दूरगामी हित को ध्यान में रख कर अपने रुख पर विचार करे।