प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की यह पहली ब्रिटेन यात्रा थी। यही नहीं, लगभग एक दशक में किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली। इस सामान्य तथ्य से भी दोनों देशों के रिश्तों में इस यात्रा की अहमियत रेखांकित की जा सकती है। पर मोदी के ब्रिटेन दौरे का महत्त्व बताने वाले कुछ दूसरे पहलू ज्यादा गौरतलब हैं। ब्रिटेन और भारत, दोनों एक दूसरे के लिए निवेश के लिहाज से बहुत अहम हैं। भारत में ब्रिटेन सबसे बड़ा यूरोपीय निवेशक है। इसी तरह भारत का भी यूरोप में निवेश सबसे ज्यादा ब्रिटेन में ही है। इसलिए यह संयोग मात्र नहीं कि मोदी के लंदन रवाना होने से पहले उनकी सरकार ने अनेक क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा तथा शर्तों को और उदार बनाने की घोषणा की। उनके इस तीन दिवसीय दौरे में सबसे ज्यादा जोर आपसी व्यापार और निवेश बढ़ाने पर ही रहा।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन की भी सर्वाधिक दिलचस्पी इसी में थी। दोनों पक्षों ने असैन्य परमाणु करार सहित नौ अरब पाउंड के कारोबारी समझौतों पर हस्ताक्षर किए। दरअसल, अमेरिका से थोड़े खिंचाव और यूरोपीय संघ से खटास के चलते ब्रिटेन ने एशिया को कारोबारी तरजीह देना शुरू किया है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग की पिछले महीने हुई ब्रिटेन यात्रा से भी यह जाहिर है। तब चीन और ब्रिटेन के बीच चालीस अरब पाउंड के सौदे हुए थे, जबकि भारत से हुए सौदों का कुल वित्तीय आकार इसके एक चौथाई से भी कम है। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भी हमसे बहुत बड़ा है। यों 2005 में टोनी ब्लेयर की भारत यात्रा के समय ही दोनों देशों ने रणनीतिक संबंध विकसित करने का एलान कर दिया था। पर वह अभी तक कूटनीतिक रस्म अदायगी ही साबित हुआ है।
कैमरन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की भारत की दावेदारी का समर्थन किया है। ब्रिटेन पहले भी इस मामले में अपनी हिमायत जता चुका है। सवाल है, सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन कब होगा, और उसे विश्व की बदली हुई परिस्थितियों और लोकतांत्रिक तकाजों के कितना अनुरूप बनाया जाएगा। मोदी की कई विदेश यात्राओं के दौरान विपक्ष पर निशाना साधने के आरोप लगे, और यह सवाल उठा कि क्या प्रधानमंत्री का ऐसा करना ठीक है। लगता है उन आलोचनाओं से मोदी ने कुछ सबक लिया है। इस यात्रा के दौरान प्रत्यक्ष या परोक्ष, उन्होंने विपक्ष को चुभने या चिढ़ाने वाली कोई बात नहीं कही, बल्कि ब्रिटिश संसद में दिए अपने भाषण में जवाहरलाल नेहरू और मनमोहन सिंह को सादर याद किया।
ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा कि यह दोनों देशों के संबंधों के इतिहास में एक ऐतिहासिक घड़ी है; दोनों देश आपसी संबंध को सहयोग और साझेदारी की एक वैश्विक मिसाल बना सकते हैं। कैमरन ने भी इसी आशय की बातें कही हैं। पर सवाल है कि ये शब्द अवसरोचित उद्गार होकर रह जाएंगे, या सचमुच मूर्त रूप लेंगे। यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि भारत अपनी आत्म-छवि को केवल निवेश और व्यापार के संदर्भ में न देखे, बल्कि उन मूल्यों के वाहक के तौर पर भी देखे, जिनका जिक्र मोदी ने बुद्ध और गांधी का हवाला देते हुए किया। मोदी को भी न केवल विदेशी धरती पर, बल्कि घरेलू मोर्चे पर देखना होगा कि इन मूल्यों का मान बढ़े।