इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक सभ्य समाज के तकाजे के अलावा अदालतों के सख्त रुख के बावजूद देश में भीड़ हिंसा की घटनाएं नहीं रुक पा रही हैं। बिहार में सारण जिले के बंगरा गांव में लोगों की भीड़ ने एक व्यक्ति को पकड़ कर इस कदर पीटा कि उसकी जान चली गई। इसका कारण महज यह था कि जान गंवाने वाला व्यक्ति अपने वाहन में जानवरों की हड्डी एक कारखाने में ले जा रहा था और लोगों को शक था कि इसमें मवेशी का मांस है।
क्या यह किसी भी लिहाज से कोई ऐसी वजह है कि लोग किसी की पीट-पीट कर उसकी जान ले लें? अव्वल तो वह व्यक्ति लंबे वक्त से कारखाने में जा रहा था, जहां से हड्डियां दवा कंपनियों में भेजी जाती हैं। लेकिन अगर लोगों को कोई शक हुआ भी तो उन्हें किसने यह अधिकार दे दिया कि वे उसे रोकने के लिए एक जघन्य अपराध को अंजाम दें? ऐसी ही एक अन्य घटना त्रिपुरा में भी सामने आई, जिसमें लोगों ने सिर्फ मवेशी चोरी के शक में एक व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या कर दी। सवाल है कि लोगों के भीतर विवेक और कानून के राज के प्रति जिम्मेदारी इस कदर क्यों खत्म होती जा रही है!
भीड़ हिंसा के मसले पर सुप्रीम कोर्ट का रुख बिल्कुल स्पष्ट है कि लोकतंत्र में भीड़तंत्र की इजाजत नहीं दी जा सकती; कोई भी नागरिक कानून अपने हाथ में नहीं ले सकता और यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे संविधान के मुताबिक कानून-व्यवस्था बनाए रखें। विचित्र है कि जो लोग विरोध प्रदर्शनों में अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति सजग और सक्रिय देखे जाते हैं, वे भी सिर्फ किसी अफवाह या शक की वजह से भीड़ की हिंसा और किसी की पीट-पीट कर हत्या तक कर डालने में बिना सोचे-समझे शामिल हो जाते हैं।
उन्हें इतना भी ध्यान नहीं रहता कि ऐसा करना न केवल किसी के अधिकारों का हनन तथा असभ्य और बर्बर हरकत है, बल्कि कानून के भी खिलाफ है। ऐसा अक्सर होता है कि भीड़ के हाथों हत्या की ऐसी घटनाओं के बाद जब पुलिस सक्रिय होकर कानूनी कार्रवाई करती है, तब पकड़े गए आरोपियों को समझ में आता है कि उन्होंने क्या गलती की है। हालांकि जिस पुलिस को समय रहते सक्रिय रह कर कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी निभानी चाहिए, वह घटना के बाद सक्रिय होती है।
उम्मीद की जाती है कि कोई समाज वक्त के साथ अपनी जीवनशैली और सोच-समझ के मामले में ज्यादा सभ्य और संवेदनशील बनेगा। किसी भी घटना को लेकर अचानक आवेश में नहीं आएगा और उस पर विचार करने के बाद ही अपनी राय बनाएगा। इसके साथ-साथ अनिवार्य रूप से कानून और अदालती आदेशों के पालन को लेकर सजग रहेगा। मगर आज भी ऐसे मामले अक्सर सामने आते हैं, जिनमें लोगों को अपने विवेक का इस्तेमाल करना जरूरी नहीं लगता है।
खासकर जब लोग समूह में होते हैं, तब सोचने के बजाय व्यक्ति भीड़ की आक्रामकता में शामिल हो जाता है। इसका एक कारण कुछ असामाजिक तत्त्वों की ओर से निराधार बातों को लेकर फैलाई गई अफवाह और उसके जरिए बनाई गई धारणा होती है, जिसकी चपेट में आए लोग अपने विवेक को तरजीह देना जरूरी नहीं समझते। जरूरत इस बात है कि ऐसी प्रवृत्तियों और इसकी जमीन बनाने वालों के खिलाफ कानून अपना काम समय रहते करे, ताकि भीड़ हिंसा और हत्या की घटनाओं को समय रहते रोका जा सके।