जम्मू-कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक को लोकसभा में मंजूरी मिल जाने के बाद उम्मीद जगी है कि जल्दी ही वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल हो सकेगी। दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभक्त कर दिए गए राज्य को फिर से पुराना ढांचा मिल सकेगा। जम्मू-कश्मीर में परिसीमन का काम लंबे समय से चल रहा था और सरकार कहती थी कि परिसीमन का काम पूरा हो जाने के बाद वहां चुनाव प्रक्रिया शुरू की जा सकेगी।

अब आरक्षण और पुनर्गठन कानूनों में संशोधन के बाद वहां विधानसभा में सीटों की संख्या एक सौ सात से बढ़ कर एक सौ चौदह हो गई है। उनमें नौ सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित की गई हैं। दो सीटें घाटी से विस्थापितों के लिए और एक सीट पाक अधिकृत कश्मीर से विस्थापितों के लिए आरक्षित की गई है।

लोकसभा में इन विधेयकों पर चर्चा के वक्त गृहमंत्री ने कहा कि इससे विस्थापितों को अपने हक की आवाज बुलंद करने में मदद मिलेगी। हालांकि परिसीमन को लेकर जम्मू-कश्मीर की राजनीति में सक्रिय दलों ने कई तरह की आपत्ति दर्ज कराई थी और परिसीमन दल के साथ सहयोग न करने का फैसला किया था, मगर स्थानीय लोगों की मांगों और उनकी इच्छाओं के अनुरूप पुनर्गठन अधिनियम को अंतिम रूप दिया गया।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में विस्थापितों के लिए सीटें आरक्षित करने का श्रेय सरकार बढ़-चढ़ कर ले रही है। निश्चित रूप से इसे बड़ा फैसला कहा जा सकता है, क्योंकि किसी भी वर्ग को जब राजनीतिक मंच और कानून बनाने का अधिकार मिलता है, तो उसे अपने हक में फैसले कराने में आसानी हो जाती है।

अभी तक कश्मीर से पलायन कर दूसरे इलाकों में बसे लोगों की शिकायत थी कि उन्हें व्यवस्था की मुख्यधारा से अलग-थलग छोड़ दिया गया है। अब निश्चय ही उन्हें इस आरक्षण से सत्ता में पहुंचने का अवसर मिलेगा। विस्थापित कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास केंद्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना है। इसके लिए पहले ही वह उन्हें नौकरियों में जगह देने का प्रावधान कर चुकी है।

इसके तहत अनेक विस्थापित कश्मीरी पंडित राज्य सरकार की नौकरियों में गए और फिर अपने घरों में बसे। हालांकि सरकार का इरादा है कि सभी विस्थापितों को घाटी में फिर से बसाया और उनकी कब्जा कर ली गई जमीन-जायदाद को वापस दिलाया जाए। मगर इस दिशा में अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पाई है। अब भी विस्थापित कश्मीरी पंडित घाटी में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करते।

विधानसभा में सीटों का आरक्षण होने के बाद भी यह चुनौती रहेगी कि किस तरह विस्थापितों को सुरक्षा प्रदान की जाए। जो लोग लौट कर घाटी में बसे हैं, उन्हें आतंकी हमलों का भय सताता रहता है। पिछले कुछ सालों में कई कश्मीरी पंडित लक्षित हमलों का शिकार भी हुए हैं। पिछले वर्ष इसे लेकर कश्मीरी पंडितों ने फिर से घाटी से पलायन का इरादा जताया था।

हालांकि सरकार उन्हें सुरक्षा प्रदान करने और आतंकवादी गतिविधियों को पूरी तरह समाप्त करने के अपने संकल्प पर दृढ़ है। देखना है, इसमें उसे कितनी कामयाबी मिल पाती है। फिलहाल सबकी नजर इस बात पर है कि वहां कब चुनाव कराए जाएंगे। इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय भी पूछ चुका है। इसी तरह वह केंद्रशासित राज्यों को जोड़ कर फिर से राज्य का दर्जा प्रदान करने को लेकर सवाल कर चुका है। हालांकि सरकार ने इस बारे में अभी तक कोई संकेत नहीं दिया है।