चालू वित्तवर्ष की तीसरी यानी दिसंबर तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर 8.4 फीसद दर्ज हुई है। यह निस्संदेह उत्साहजनक आंकड़ा है। यह भारतीय रिजर्व बैंक के अनुमान से कहीं अधिक है। इस तरह चालू वित्तवर्ष का सकल घरेलू उत्पाद सारे अनुमानों से अधिक रहने वाला है। रिजर्व बैंक ने अपना पुराना अनुमान बदल कर इसे 7.6 फीसद कर दिया है।
हालांकि रिजर्व बैंक ने माना था कि तीसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर आठ फीसद के आसपास रहेगी, मगर चौथी तिमाही में इसके छह फीसद के नीचे रहने का अनुमान है। तिमाही में विकास दर ऊंची रहने के पीछे विनिर्माण क्षेत्र के बेहतर प्रदर्शन, कर संग्रह में बढ़ोतरी और सबसिडी खर्च में कमी को मुख्य कारण माना जा रहा है। पांच लाख करोड़ डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के सरकार के इरादे को निश्चित रूप से इससे बल मिलेगा।
मगर इस आर्थिक विकास दर की परत-दर-परत पड़ताल करें, तो कई असंगत स्थितियां भी नजर आती हैं। आर्थिक विकास दर के ऊंची रहने के बावजूद आठ प्रमुख बुनियादी उद्योगों- कोयला, इस्पात, बिजली, कच्चा तेल, रिफाइनरी, प्रकृतिक गैस, उर्वरक और सीमेंट- में विकास दर सुस्त दर्ज हुई है। इसके समांतर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करीब तेरह फीसद घटा है।
माना जाता है कि तेज अर्थव्यवस्था वाले देशों की तरफ विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अपने आप आकर्षित होता है। इस वक्त जब दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है, तब भारतीय अर्थव्यवस्था का रुख ऊपर की तरफ बना हुआ है। दवा उत्पादन, सेवा, दूर संचार जैसे कुछ क्षेत्रों में विकास की संभावनाएं अधिक आंकी जाती रही हैं।
मगर सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद इन क्षेत्रों में भी अगर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित नहीं हो पा रहा है, तो इसे अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। जिस समय औद्योगिक गतिविधियां ठप्प थीं, उस समय भी भारतीय कृषि क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाने नहीं दिया था। मगर आर्थिक विकास दर में इसका योगदान लगातार घटता नजर आ रहा है।
जाहिर है, इस क्षेत्र को उचित प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा। इससे आने वाले समय में महंगाई की दर ऊंची रहने की आशंका बनी रहेगी। महंगाई पर काबू पाना पहले ही सरकार के लिए चुनौती बना हुआ है। रिजर्व बैंक रेपो दरों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करना चाहता। पिछले आंकड़ों में सबसे अधिक महंगाई सब्जियों, दूध, फल और अंडे वगैरह की कीमतों में दर्ज की गई थी।
ऊंची विकास दर के समांतर यह सवाल भी लगातार बना हुआ है कि इसी अनुपात में लोगों की क्रयशक्ति क्यों नहीं बढ़ पा रही। क्रयशक्ति न बढ़ने से घरेलू बाजार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कुछ दिनों पहले जारी हुए उपभोग खर्च संबंधी आंकड़ों से जाहिर है कि लोगों का घरेलू खर्च बढ़ कर दो गुना हो गया है, जबकि उनकी आमदनी में उत्साहजनक बढ़ोतरी नहीं हो पाई है।
गरीबी के पैमाने को लेकर भी अंगुलियां उठती रही हैं, जिसके आधार पर करीब तेईस करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकालने का दावा किया जा रहा है। अब तो योजना आयोग का कहना है कि केवल पांच फीसद लोग ही गरीब हैं। जबकि इसका दूसरा पहलू यह है कि सरकार खुद करीब अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज वितरित करने का श्रेय लेती है। ऐसे असंगत आंकड़ों के साथ आर्थिक विकास दर के ऊंची रहने से देश की वास्तविक तरक्की का चेहरा स्पष्ट नहीं हो सकता।