विकास के तमाम दावों के समांतर दुनिया में आज भी करोड़ों लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं। यह समझना मुश्किल है कि एक ओर कुछ देशों की अरबों-खरबों की अर्थव्यवस्था की बात हो रही है तो दूसरी ओर कई देशों में करोड़ों नागरिक आज भी भूखे पेट क्यों सो रहे हैं। क्या यह संसाधनों के असंतुलित बंटवारे से उपजी समस्या है? भुखमरी की समस्या को लेकर संयुक्त राष्ट्र की वित्तपोषित एजंसी विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्लूएफपी) की नई रपट विचलित करती है। इसके मुताबिक, दुनिया के छह देशों के एक करोड़ चालीस लाख लोग भुखमरी के कगार पर पहुंच सकते हैं। समझा जा सकता है कि आज भी भूख और कुपोषण कितनी बड़ी चुनौती है।
यह तब है जब दुनिया भर में कृषि प्रौद्योगिकी को उन्नत अवस्था में बताया जाता है। कई देशों में अनाज भंडार भरे हुए हैं। ऐसे में दुनिया के किसी कोने में कोई व्यक्ति भूखा रह जाता है, तो इसके जिम्मेदार वे बड़े देश भी हैं, जो खाद्य सहायता कार्यक्रम को आर्थिक सहायता देने से हाथ खींच रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र सहायता एजंसी का कहना है कि उसके प्रमुख दानदाताओं, खासकर अमेरिका और प्रमुख पश्चिमी देशों ने अनुदान में भारी कटौती की है। नतीजतन, हैती, सोमालिया, सूडान, कांगो, दक्षिण सूडान और अफगानिस्तान में नागरिकों तक खाद्य सहायता नहीं पहुंच रही और वहां के लोग भुखमरी का सामना करने को लाचार हैं।
गरीबी, कुपोषण और भुखमरी से बेहाल देशों की दुर्दशा को संयुक्त राष्ट्र एजंसी के इस कथन से समझा जा सकता है कि हम लाखों लोगों की जीवनरेखा को अपनी आंखों के सामने टूटते हुए देख रहे हैं। वैश्विक स्तर पर भुखमरी का यह भयावह परिदृश्य है। विज्ञान में इतनी प्रगति के बाद भी भुखमरी आज भी बड़ी चुनौती बनी हुई है।
करीब इकतीस करोड़ से अधिक नागरिक गंभीर रूप से खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं। इनमें भी करीब साढ़े चार करोड़ नागरिक आपात स्थिति में पहुंच चुके हैं। सोमालिया में गरीबी और भुखमरी पूरी मानवता को लज्जित करती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि कई बड़े राष्ट्र छोटे देशों में संसाधनों का दोहन करते आए हैं। ऐसे में सवाल है कि अंतरराष्ट्रीय खाद्य सहायता कार्यक्रम से पीछे हट रहे बड़े देश आखिर कैसी दुनिया देखना चाहते हैं?