उत्तराखंड के जगलों में लगी आग ने बहुत विकराल रूप धारण कर लिया है। यों तो जंगल में आग लगना सामान्य बात है, छोटे पैमाने पर हर साल ऐसी न जाने कितनी घटनाएं होती रहती हैं। ज्यादातर यही होता है कि इस तरह की आग का फैलना अपने आप रुक जाता है और फिर वह धीरे-धीरे शांत भी हो जाती है। लेकिन इन दिनों उत्तराखंड में जैसी आग फैली हुई है उसने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। इससे पहले, पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के समय यानी 2009 में उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग लगी थी और उसकी चपेट में आकर कई व्यक्तियों की जान चली गई थी। इस बार भी कई लोगों की मृत्यु हुई है। दर्जनों लोगों के झुलस जाने की खबर है। पशु-पक्षी कितनी तादाद में मारे गए होंगे इसे सही-सही शायद ही जाना जा सके। पर इस आग से उन्हीं का जीवन सबसे ज्यादा संकट में पड़ा है जो जंगल की गोद में खेलते-रहते हैं।

भारत की गिनती जैव विविधता के लिहाज से दुनिया के सर्वाधिक संपन्न देशों में होती है। फिर देश में जैव विविधता की दृष्टि से सबसे समृद्ध चार-पांच क्षेत्रों में एक उत्तराखंड है। देश का पहला टाइगर रिजर्व यहीं है। इसके अलावा भी वन्यजीवों के लिए कई संरक्षित क्षेत्र हैं। फिर सारा जंगल अपने आप में ढेर सारे जीव-जंतुओं का पर्यावास है। उनमें से बहुत-सी प्रजातियां ऐसी हैं जो ज्यादा दूर तक या तेजी से भाग नहीं सकतीं। वन संपदा का यह बड़ा से बड़ा नुकसान है। यह सही है कि जंगल में आग लगने के कुदरती कारण होते हैं, इस बार भी वही वजह रही होगी। तो क्या इस हादसे को एक नियति भर मान लिया जाए? कुछ लोग इस आग को ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ कर देखते हैं। यह नजरिया इस मामले में कहां तक सही है यह विस्तृत अध्ययन से ही जाना जा सकेगा। पर यह सही है कि मौसम की शुष्कता और तेज हवाओं ने आग की भयावहता बढ़ाई है।

जंगलों में पहले से लगातार कम हो रही नमी भी आग लगने या इतने बड़े पैमाने पर फैलने की वजह हो सकती है। हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने से जिस खतरे की आशंका जताई जाती रही है वह खतरा अब कहीं और बड़ा नजर आएगा। राज्य के जलस्रोतों पर भी इस आग का बुरा असर पड़ेगा। अर्थव्यवस्था पर भी, क्योंकि राज्य का अधिकांश राजस्व वनोपज से आता है। फिर पर्यटन पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा, जो राज्य की आय का एक अन्य प्रमुख स्रोत है। आग पर काबू पाने के लिए एनडीआरएफ यानी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन बल की कई टुकड़ियां तैनात की गई हैं, सेना की भी मदद ली जा रही है। पर ऐसी आग पर काबू पाने के लिए अपेक्षित प्रशिक्षण और जरूरत भर के उपकरणों की कमी है।

हालांकि एनडीआरएफ एक दक्ष बल है, पर ऐसी आग पर काबू पाने के तरीके विकसित करने में उसे वक्त लगेगा। अनुभव बताता है कि इस तरह के हादसों का सामना स्थानीय समुदायों की भागीदारी के बगैर नहीं किया जा सकता। मगर इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया कि उन्हें इसके लिए प्रशिक्षित किया जाए और जरूरी उपकरण या संसाधन मुहैया कराए जाएं। हालांकि वनों की हिफाजत के लिए हर साल धनराशि आबंटित होती है, पर यह जरूरत के बरक्स बहुत कम होती है। तिस पर उसके कारगर इस्तेमाल की कोई सुव्यवस्थित योजना नहीं दिखती।