दिल्ली में पिछले कई सालों से जब मौसम सर्द होने लगता है, वायुमंडल में धूल और गैस के तैरते कण कुछ नीचे खिसक आते हैं। इसके चलते बेमौसम धुंध की गाढ़ी परत बन जाती है। आंख, फेफड़े और त्वचा संबंधी तकलीफें बढ़ जाती हैं। इस बार इसका बड़ा कारण पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में किसानों का खेतों में पुआल जलाना बताया जा रहा है। इसलिए एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने इन राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि खेतों में पुआल जलाने वाले किसानों पर पंद्रह हजार रुपए तक जुर्माना लगाया जाए।
इसके साथ ही एनजीटी ने कहा है कि सरकारें किसानों को पुआल निस्तारण के लिए मशीनें उपलब्ध कराएं। इसके लिए अलग-अलग जोत के हिसाब से उसने मशीन की कीमतें भी तय कर दी हैं। मगर प्रदूषण के मामले में अदालती निर्देशों की अनदेखी करती आ रही सरकारें पुआल जलाने पर नजर रखने को लेकर कितनी संजीदगी दिखाएंगी, कहना कठिन है। यों हरित पंचाट ने राज्य सरकारों से कहा है कि वे सभी जिलाधिकारियों को अपने इलाके में जाकर इस समस्या पर नजर रखने का आदेश दें। पर यह कहां तक संभव होगा, देखने की बात है।
दिल्ली और अन्य महानगरों में निरंतर बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए एनजीटी और दूसरी अदालतें कई बार सरकारों को निर्देश दे चुकी हैं। मगर अब तक उन पर ठीक से अमल नहीं हो पाया है। औद्योगिक इकाइयों और वाहनों से निकलने वाला धुआं शहरों में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण है। मगर इन पर अंकुश लगाने में सरकारें प्राय: नाकाम साबित हुई हैं। नदियों में सीधे मिलने वाले रासायनिक कचरे को रोकने के उपाय अब तक नहीं किए जा सके हैं। बहुत सारे कल-कारखाने स्थानीय प्रशासन से सांठगांठ कर प्रदूषण मानकों की अनदेखी करते रहते हैं। ऐसे में किसानों के पुआल जलाने पर नजर रखने के मामले में बेहतर नतीजे की उम्मीद धुंधली ही कही जा सकती है।
हमारे देश के अधिकतर किसान आज भी पारंपरिक तरीके से खेती करते हैं। जुताई-बुआई-कटाई वगैरह में जरूर कुछ हद तक मशीनों का इस्तेमाल होने लगा है, पर पुआल और भूसा आदि के निस्तारण के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना वे नहीं जानते। धान की फसल कटने के बाद अब गेहूं की बुआई का समय शुरू हो गया है, इसलिए वे खेतों में पड़े पुआल का जल्दी निस्तारण कर देना चाहते हैं। उसे जला देना उन्हें आसान उपाय नजर आता है। पशुपालन में कमी आने से यह समस्या बढ़ी है। हालांकि पुआल, भूसे और दूसरी फसलों के अनुपयोगी हिस्से को पशु-चारे के अलावा कंपोस्ट बनाने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है, पर रासायनिक खादों का चलन बढ़ने से कंपोस्ट बनाने का काम भी कम हो गया है। इसके लिए किसानों में व्यापक जागरूकता लाने की जरूरत है कि इस तरह फसलों का अनुपयोगी हिस्सा जला कर न सिर्फ वे शहरों में प्रदूषण की मात्रा को बढ़ा रहे हैं, बल्कि अपनी सेहत से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। पर इसके लिए पहले खुद सरकारों को व्यवहार के स्तर पर यह जताना होगा कि प्रदूषण रोकने के लिए वे संजीदा हैं।