पिछले कुछ समय से यह चलन-सा बन गया है कि ज्यादातर सरकारी संस्थानों के समारोहों के आयोजन में उसके उद्घाटन, समापन या अन्य कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए सत्ता पक्ष से जुड़े राजनीतिकों या मंत्रियों को बुला लिया जाता है। इस बात का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा जाता कि इस तरह किसी स्वायत्तशासी संस्था की छवि और गतिविधि प्रभावित होती है। यह बेवजह नहीं है कि सैद्धांतिक रुख रखने वाले कुछ लोग ऐसी संस्थाओं के राजनीतिकरण से सहमति नहीं रख पाते और आखिरी विकल्प के तौर पर इस्तीफा दे देते हैं।
गौरतलब है कि मलयालम के जाने-माने लेखक सी राधाकृष्णन ने इस वर्ष के साहित्य अकादेमी के साहित्य महोत्सव का उद्घाटन एक केंद्रीय मंत्री से कराए जाने के विरोध में सोमवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। वे केंद्रीय साहित्य अकादेमी के सदस्य थे। उनका कहना था कि साहित्य महोत्सव का उद्घाटन जिस केंद्रीय मंत्री से कराया गया, उनका साहित्य के क्षेत्र में कोई बड़ा योगदान नहीं है। अकादेमी के सचिव को लिखे अपने त्यागपत्र में उन्होंने यह शिकायत की थी कि साहित्य अकादेमी के लंबे और शानदार इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ, जबकि अकादेमी ने राजनीतिक दबाव के खिलाफ संस्थान की स्वायत्तता को लगातार बरकरार रखा है।
साहित्य, कला, संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं के कई प्रक्रियागत मामलों में पहले भी सवाल उठते रहे हैं। जबकि उम्मीद की जाती है कि ऐसी संस्थाओं को विवाद और राजनीतिक दखलअंदाजी से अलग रखना चाहिए। उनमें विशेषज्ञता को तरजीह दी जानी चाहिए। मगर अफसोस कि ऐसी संस्थाओं में पिछले कुछ समय से ऐसे विवाद उभरते रहे हैं, जो नाहक ही उनकी तटस्थ और स्वतंत्र छवि पर असर डालते हैं। खेल संघों में शीर्ष पदों पर राजनीतिक नियुक्तियों का हासिल क्या रहा है, यह छिपा नहीं है।
अब साहित्य-संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं में भी राजनेताओं को बुलाने की वजह से उस पर विवाद खड़े होने लगे हैं। विडंबना है कि ऐसी बातों पर कोई आपत्ति जताता या वाजिब सवाल उठाता है तो उसे संस्थान से बाहर होना पड़ता है। ऐसी छवि के साथ साहित्यिक मूल्यों और विचारों को कैसे बचाया जा सकेगा?