Election Commission SIR: बिहार की तर्ज पर अब अन्य राज्यों में भी मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) को लेकर सवाल उठने लगे हैं, क्योंकि बड़ी संख्या में लोगों के नाम इस सूची से हटाए जाने की आशंका है। चुनाव आयोग की ओर से हाल में जारी मसौदा सूची में तमिलनाडु में 97.40 लाख और गुजरात में 73.73 लाख मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं।
लोगों को मतदाता सूची से बाहर रखने के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें समय पर आवश्यक दस्तावेज दर्ज न कराना भी शामिल है। अंतिम सूची जारी होने से पहले ऐसे लोगों को अपनी आपत्तियां और दावे पेश करने का मौका दिया जाएगा और संभव है कि कई मतदाताओं के नाम फिर से जुड़ जाएंगे।
मसौदा सूची के आंकड़ों पर गौर किया जाए, तो उससे यही लगता है कि नाम दर्ज कराने के आखिरी अवसर के बाद भी बड़ी संख्या में लोग इस सूची से बाहर रह जाएंगे। सवाल है कि अगर इन लोगों के पास मतदान की पात्रता नही है, तो पहले इनका नाम क्यों और कैसे मतदाता सूची में था? बिहार में एसआइआर की प्रक्रिया को लेकर सबसे पहले पहचान पत्र के मसले पर विवाद पैदा हुआ था।
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चुनाव आयोग ने आधार कार्ड को नागरिकता का पहचान पत्र मानने से इनकार दिया था। बाद में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर आधार को पहचान पत्र के दस्तावेजों में शामिल किया गया। बिहार में भी मसौदा सूची में करीब पैंसठ लाख मतदाताओं के नाम हटा दिए गए थे। हालांकि बाद में उसमें कई नाम जोड़े गए, इसके बावजूद अंतिम सूची में करीब सैंतालीस लाख लोग मतदाता सूची से बाहर हो गए।
शीर्ष अदालत ने इस पर सूची से हटाए गए लोगों का कारण सहित विस्तृत ब्योरा मांगा। यही स्थिति अब अन्य राज्यों में भी देखने को मिल रही है। इस सबके बीच विशेष पुनरीक्षण की प्रक्रिया में पारदर्शिता और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को भी कसौटी पर कसा जा रहा है। पश्चिम बंगाल में तो मसविदा सूची से हटाए गए लोगों का सत्तारूढ़ दल ने अपने स्तर पर सत्यापन करने की मुहिम शुरू कर दी है। ऐसे में यह सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर चुनाव आयोग पर आम लोगों और राजनीतिक दलों का भरोसा क्यों डगमगाने लगा है?
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इसमें दोराय नहीं है कि चुनावी प्रक्रिया की शुचिता बनाए रखने के लिए मतदाता सूची में समय-समय पर संशोधन कर अपात्र लोगों या मृतकों के नाम हटाए जाने जरूरी है। मगर इस प्रक्रिया में पारदर्शिता का पैमाना भी उतना ही आवश्यक है, ताकि न तो किसी के मन में कोई आशंका रहे और न ही कहीं से कोई सवाल उठने की गुंजाइश बचे। यह चुनाव आयोग की प्राथमिक जिम्मेदारी है कि अगर किसी को कोई आशंका हो, तो उसका तत्काल निराकरण किया जाए। ऐसा न होने पर आयोग की विश्वसनीयता पर अंगुली उठना स्वाभाविक है।
एक अहम सवाल यह भी है कि जिन लोगों को मतदाता सूची से बाहर कर दिया जाएगा, उनका भविष्य क्या होगा? क्या वे देश के नागरिक बने रहेंगे या नहीं, क्योंकि देश के हर नागरिक को मतदान का अधिकार है और जब उनका यही अधिकार खत्म हो जाएगा, तो उनकी नागरिकता पर भी देर-सवेर सवाल उठेगा ही। यह चिंता इसलिए गंभीर है, क्योंकि देश भर में गहन पुनरीक्षण के दौरान मतदाता सूची से बाहर होने वाले लोगों की संख्या करोड़ों में हो सकती है। चुनाव आयोग और सरकार को इस पहलू को भी ध्यान में रखना होगा।
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