बच्चों को महत्त्व देने और उनका इस्तेमाल करने में फर्क है। विडंबना यह है कि राजनीतिक दुनिया में बच्चों की जिंदगी को अहमियत देने से जुड़े मुद्दों पर तो बहुत कम ध्यान दिया जाता है, मगर अक्सर चुनाव प्रचार में उन्हें एक जरिया बना कर भी उपयोग किया जाता है। निश्चित रूप से यह मानवीय संवेदनाओं के नाजुक पहलुओं को भुनाने की तरह है, जिसमें लोग कई बार बच्चों को देख कर किसी मसले पर अपनी राय बना लेते हैं।

जबकि यह भी संभव है कि बच्चों को आगे रख कर कोई व्यक्ति या राजनीतिक समूह अपने वैसे मुद्दों के लिए भी समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहा हो, जिनमें आम लोगों की कोई रुचि न हो या फिर वे उससे असहमत हों। जाहिर है, यह न केवल लोगों की भावनाओं के साथ एक प्रकार का खिलवाड़ है, बल्कि मासूमों का बेजा इस्तेमाल भी है। हालांकि कई राजनीतिक दल या उनसे जुड़े नेता और उम्मीदवार अपने प्रतिद्वंद्वियों पर बच्चों का इस्तेमाल करने के आरोप लगाते रहे हैं, मगर दूसरे स्तर पर वे भी उस तरह के अभियान से परहेज नहीं करते।

इलेक्शन कमीशन ने ‘कतई बर्दाश्त न करने’ की नीति बताई

अब लोकसभा चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे पोस्टर और पर्चों सहित प्रचार की किसी भी सामग्री में बच्चों का इस्तेमाल ‘किसी भी रूप में’ न करें। अलग-अलग पार्टियों को भेजे अपने परामर्श में आयोग ने दलों और उम्मीदवारों की ओर से चुनावी प्रक्रिया के दौरान ऐसा करने पर अपने ‘कतई बर्दाश्त न करने’ की नीति के बारे में स्पष्ट किया। दरअसल, भारतीय समाज में बच्चों के प्रति आम लोगों के भीतर भावनाएं और संवेदनाओं की तीव्रता छिपी नहीं रही है।

कई बार किसी पार्टी या उसकी नीतियों से गंभीर शिकायत होने के बावजूद लोग बच्चों का चेहरा देख कर अनदेखी कर देते हैं। इससे मुद्दों को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा होती है, जिसका असर चुनावों में जीत-हार पर भी पड़ता है।

इसके समांतर चुनावी अभियानों में शामिल किए गए बच्चों और उनके मनोविज्ञान पर कैसा असर पड़ता है, इसका ध्यान रखना किसी को जरूरी नहीं लगता। इस लिहाज से देखें तो चुनाव प्रचार में बच्चों का इस्तेमाल किए जाने को लेकर निर्वाचन आयोग के ताजा निर्देश की अहमियत समझी जा सकती है।