जनसत्ता 13 अक्तूबर, 2014: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते सप्ताह सांसद आदर्श ग्राम योजना की घोषणा की। इसके लिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण की जयंती का दिन चुना। तीन साल पहले लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आखिरी रथयात्रा इसी तिथि को जेपी के गांव सिताब दियारा से शुरू की थी। भ्रष्टाचार के विरोध में निकली उस रथयात्रा का हासिल क्या रहा? क्या नई योजना भी जेपी का नाम भुनाने की भाजपा की एक और कोशिश होकर रह जाएगी, या सचमुच इससे कोई खास फर्क पड़ेगा? चुनिंदा गांवों के विकास की योजना पहली बार सामने नहीं आई है। वित्तवर्ष 2009-10 में यूपीए सरकार ने इसी तरह का एक कार्यक्रम प्रधानमंत्री आदर्श गांव योजना के नाम से शुरू किया था। इसमें चुने जाने वाले गांव वे थे जिनमें अनुसूचित जातियों की आबादी पचास फीसद से अधिक हो। यह कसौटी मायने रखती थी, क्योंकि दलित हमारे समाज के सबसे दबे-शोषित समुदाय हैं। अलबत्ता उस योजना का हुआ, यह किसे मालूम है! नई योजना में वैसी कोई सामाजिक कसौटी नहीं रखी गई है। एक और महत्त्वपूर्ण फर्क यह है कि इसे प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार को नहीं, सांसदों को अंजाम देना है। प्रधानमंत्री ने हर सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र का कोई ऐसा गांव चुनने को कहा है जिसकी जनसंख्या तीन हजार से पांच हजार के बीच हो।
हर सांसद को एक गांव को चुन कर 2016 तक उसे आदर्श गांव के रूप में विकसित करना है। उसके बाद 2019 तक दो गांव और गोद लेने होंगे। इस तरह अगले आम चुनाव तक हर सांसद को तीन गांवों को मॉडल गांव बनाना होगा। गांव का चुनाव सांसद अपनी मर्जी से करेंगे। प्रधानमंत्री ने यह हिदायत जरूर दी है कि सांसद अपने या अपने किसी रिश्तेदार के गांव का चयन न करें, ताकि पक्षपात की शिकायत नहीं रहे। लेकिन इस योजना को लेकर पहला सवाल यही उठता है कि क्या चुनिंदा गावों पर ही विशेष ध्यान देने से बाकी ग्रामीण भारत के प्रति भेदभाव नहीं होगा? अगर यह पहल रंग लाती है तो जाहिर है प्रधानमंत्री इसका श्रेय लूटने से क्यों चूकेंगे? और अगर यह योजना संतोषजनक परिणाम नहीं दे पाएगी, तो उसके लिए सांसद जिम्मेवार होंगे। पर सियासी गणित से ज्यादा अहम सवाल यह है कि क्या ग्रामीण भारत के विकास के तकाजे को इस तरह चुने हुए गांवों पर केंद्रित कर देने की नीति सही है?
सरकार कोई सामाजिक संस्था नहीं है कि वह एक क्षेत्र विशेष में विकास का नमूना पेश करने तक सीमित रहे, उसे तो समूची आबादी के बारे में सोचना चाहिए। ग्रामीण इलाकों को ध्यान में रख कर मनरेगा, भारत निर्माण जैसी कई योजनाएं शुरू की गर्इं। इनके अमल में बहुत-सी खामियां रही होंगी। उन्हें दूर कर उनका ज्यादा कारगर क्रियान्वयन करने के बजाय ऐसी नीति क्यों अपनाई जा रही है जिससे बाकी गांव खुद को उपेक्षित महसूस करें? फिर, एक और अहम सवाल यह है कि क्या गांवों के विकास को कृषि की बेहतरी के तकाजे से अलग करके देखा जा सकता है? पिछले दो दशक में लाखों किसान खुदकुशी करने को मजबूर हुए। यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है, जो इस कटु सच्चाई की ही देन है कि खेती घाटे का धंधा होकर रह गई है। गांवों से रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन जारी है। दूसरी ओर, मोदी सरकार ने मनरेगा के मद में कटौती कर दी है। हमारे सांसद सरकार के तमाम फैसलों और नीतियों पर मुहर लगाते हैं। उन्हें इन फैसलों और नीतियों को अधिक जनपक्षीय बनाने पर जोर देना चाहिए, या किसी खास गांव पर अपना ध्यान केंद्रित करने पर?
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