पश्चिम बंगाल में राजनीति और हिंसा जैसे एक-दूसरे की पर्याय बन चली हैं। छोटा-मोटा चुनाव भी बिना हिंसा के संपन्न नहीं हो पाता। पिछले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनावों के दौरान अनेक वीभत्स हिंसक घटनाएं हुईं। दिन दहाड़े लोगों को गोलियां मारी गईं, घर में बंद करके आग लगा दी गई। ऐसा नहीं कि पश्चिम बंगाल में हिंसक घटनाओं का सिलसिला केवल चुनाव के दौरान चलता है। चुनाव से बहुत पहले शुरू हो जाता है और बहुत बाद तक चलता रहता है।

अगले महीने होने हैं पंचायत चुनाव, अब तक तीन लोगों की हत्या हो चुकी है

वहां अगले महीने पंचायत चुनाव होने हैं। उसके लिए नामांकन प्रक्रिया शुरू हो गई है। इसी दौरान आठ जिलों में हिंसा की घटनाएं हुईं, जिसमें तीन लोगों की हत्या कर दी गई। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में वहां और कितनी हिंसक घटनाओं की आशंका हो सकती है। हालांकि वहां पंचायत चुनावों में सुरक्षा की दृष्टि से केंद्रीय बलों की तैनाती शुरू हो गई है। मगर इससे हिंसा कितनी रुक पाएगी, कहना मुश्किल है। इसे रोकने के लिए राज्य सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति प्रदर्शित करनी होगी, जिसके लक्षण अभी तक नजर नहीं आ रहे।

कम्युनिस्ट शासन में भी हिंसा की घटनाओं में कोई कमी नहीं देखी गई थी

दरअसल, वहां की राजनीतिक पार्टियां हिंसा के बल पर ही अपना जनाधार मजबूत बनाने का प्रयास करती रही हैं। यह अकेले ममता बनर्जी सरकार की बात नहीं है, कम्युनिस्ट शासन में भी हिंसा की घटनाओं में कोई कमी नहीं देखी गई थी। छिपी बात नहीं है कि इस तरह हिंसक घटनाओं को अंजाम देने वालों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है। सत्तापक्ष वाले उपद्रवियों को पूरा भरोसा रहता है कि उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती। इसका उदाहरण खुद ममता बनर्जी हैं।

जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं और किसी आरोप में पुलिस ने उनके कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया, तो वे खुद थाने पहुंच गई थीं और पुलिस को फटकार लगाते हुए अपने समर्थकों को छुड़ा लाई थीं। दूसरे राजनीतिक दल भी इसी तरह अपने लोगों की सुरक्षा में घेरा बनाए देखे जाते हैं। वहां हर मुहल्ले में युवाओं के खेल आदि से जुड़े संगठन हैं, वे भी राजनीतिक आधार पर बने हैं। इसलिए उनमें लगातार तनाव की स्थिति बनी रहती है। सबके बीच कुछ पुरानी दुश्मनियां चल रही होती हैं और वे बदले की ताक में रहते हैं। चुनाव के दौरान इसका अच्छा अवसर मिल जाता है। ऐसे में केंद्रीय बलों के लिए उपद्रवी तत्त्वों पर नजर रखना आसान काम नहीं होगा।

पश्चिम बंगाल में चुनावों के दौरान हिंसा की दो मुख्य वजहें हो सकती हैं। एक तो वहां बड़े पैमाने पर गरीबी और दूसरे, लोगों में राजनीतिक जागरूकता। यह स्थिति लगभग बिहार में भी है। वहां भी चुनाव के दौरान हिंसा की घटनाएं होती ही हैं। राजनीतिक दलों को इसका लाभ मिलता है। इसलिए कभी किसी राजनीतिक दल को अपने कार्यकर्ताओं से संयम और विवेकपूर्ण व्यवहार करने की अपील करते नहीं सुना जाता। फिर, राजनीति में बाहुबल के बढ़ते प्रभाव की वजह से भी इस तरह के लोगों को अपनी शक्ति के प्रदर्शन का मौका मिल जाता है।

इस तरह वे राजनीतिक दलों के थोड़ा और करीब पहुंचने में कामयाब होते हैं। राजनीति में बाहुबल के बढ़ते चलन को पर लगाम लगाने की जरूरत लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है। मगर न तो राजनीतिक दलों की तरफ से कोई पहल हुई और न निर्वाचन आयोग ने ही इसके खिलाफ कभी कोई कड़ा रुख अख्तियार किया। ऐसे में वहां हिंसा का सिलसिला कब रुकेगा, कहना मुश्किल है।