आजादी के बाद जब शिक्षा नीति बनी तो उसका उद्देश्य उदारवादी ढंग से ज्ञान परंपराओं को समाहित करके बच्चों में तार्किक, वैज्ञानिक और नवोन्मेषी दृष्टि विकसित करना था। उसी ढंग से पाठ्यपुस्तकें तैयार की गईं। उन पुस्तकों को बनाने के लिए विभिन्न अनुशासनों और चिंतन-पद्धतियों के लोगों को शामिल किया गया। सबसे बड़ी बात कि पाठ्यपुस्तकों को दलीय राजनीति और सरकारी दबाव से बिल्कुल मुक्त रखा गया। मगर पिछले कुछ सालों से जिस तरह विभिन्न राज्यों और केंद्रीय संस्था एनसीईआरटी की किताबों में से पुराने पाठों को पूरा या आंशिक रूप से हटाने या नए पाठ जोड़ने को लेकर लगातार विवाद देखे जाते रहे हैं, उससे भारतीय शिक्षा-व्यवस्था पर स्वाभाविक ही सवाल उठने लगे हैं।
विद्यार्थियों के सीखने की प्रक्रिया को बाधित करते हैं राजनीतिक आग्रह या दुराग्रह
पाठ्यपुस्तकों में राजनीतिक आग्रह या दुराग्रह आखिरकार विद्यार्थियों के सीखने की प्रक्रिया को बाधित करते हैं। पिछले दिनों एनसीइआरटी की पुस्तकों में से कुछ पाठ हटाए गए थे। उसे लेकर पूरे देश में खासा विवाद पैदा हुआ था कि आखिर सरकार बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा देना चाहती है। अब एनसीइआरटी की राजनीति विज्ञान और समाज विज्ञान की पुस्तकों की सलाहकार समितियों से जुड़े करीब तैंतीस विद्वानों ने पत्र लिख कर अनुरोध किया है कि उन किताबों की सलाहकार समिति से उनका नाम हटा दिया जाए, क्योंकि जो किताबें उन्होंने तैयार की थीं, उनका स्वरूप अब वही नहीं रह गया है।
उधर कर्नाटक सरकार ने राज्य परिषद की पुस्तकों में से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार और वीर दामोदर सावरकर आदि से संबंधित पाठ पुस्तकों से निकालने और उसकी जगह नेहरू, सावित्रिबाई फुले, आंबेडकर आदि की रचनाओं को शामिल करने की मंजूरी दे दी है। हालांकि कांग्रेस ने इसकी घोषणा अपने विधानसभा घोषणापत्र में ही कर दी थी। ऐसी घटनाएं दूसरे राज्यों में भी हो चुकी हैं। यह बिल्कुल हाल की प्रवृत्ति भी नहीं है। पिछले बीस सालों से इस प्रवृत्ति ने अब जैसे जड़ें पकड़ ली है।
यह बहुत खतरनाक और चिंताजनक स्थिति है। बच्चों को क्या पढ़ाना है, यह इस बात से तय होता है कि भविष्य में देश को कैसा बनाना है। पहले ही शिक्षा के क्षेत्र में कई तरह की विसंगतियां पैदा हो चुकी हैं। अब धीरे-धीरे शिक्षा गरीब लोगों के हिस्से से बाहर होती जा रही है। ऐसे में अगर सरकारें पाठ्यपुस्तकों में अपने नेताओं का महिमामंडन करने और विपक्षी दल के महापुरुषों का मानमर्दन करने पर तुल जाएं, तो आखिर हमारे देश की नई पीढ़ी की बुनियाद कैसी होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है।
जब भी पाठ्यपुस्तकें तैयार की जाती हैं तो उनमें पाठों का चुनाव करते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि उससे बच्चे को व्यावहारिक और कार्य जीवन के लिए क्या सीखने को मिल सकता है। उसमें अपने समाज, पर्यावरण, संस्कृति, सभ्यता, मानवीय मूल्यों, राजनीतिक व्यवस्था आदि से जुड़े कितने आयाम वह ग्रहण कर सकता है। उससे उसकी कल्पनाशक्ति का कितना विकास हो सकता है। पुस्तकों का मकसद सिर्फ शिक्षित व्यक्ति नहीं, जिम्मेदार नागरिक तैयार करना होता है। पुस्तकों को सियासी रंग में रंग कर यह मकसद क्या हासिल किया जा सकता है? शिक्षा में दलगत राजनीति का प्रवेश किसी भी रूप में बच्चों के भविष्य के लिए अच्छा नहीं हो सकता। जब सत्ताधारी दल अपना निहित स्वार्थ किताबों में भर देना चाहते हैं, तो वे किताबें सिर्फ बोझ बन जाती हैं, ज्ञान की पोथी नहीं। इसलिए यह अपेक्षा शायद बेमानी नहीं कि राजनीतिक दल और सरकारें बच्चों की किताबों में खुद को न थोपें।