पिछले हफ्ते भारत समेत एक सौ पचहत्तर देशों ने संयुक्त राष्ट्र में पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते पर एक ही दिन इतने अधिक देशों के हस्ताक्षर होना अपने आप में अपूर्व है। पर इससे बड़ी ऐतिहासिक घटना यह है कि दुनिया के सिर पर मंडराते पर्यावरणीय संकट से जूझने के लिए एक वैश्विक करार पर इतनी व्यापक सहमति बनी है। अभी तक ग्लोबल वार्मिंग संबंधी चर्चाएं विकसित और विकासशील खेमों की खींचतान में उलझ कर रह जाती थीं।

यह समझौता इस बात का संकेत है कि अब उस तरह की खेमेबंदी के दिन विदा हो गए हैं। अलबत्ता इस मौके पर भारत के प्रतिनिधि के तौर पर पर्यावरणमंत्री प्रकाश जावडेकर विकसित देशों को उनकी खास जिम्मेवारी की याद दिलाना नहीं भूले। उन्होंने कहा कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के वैश्विक प्रयासों में विकसित देशों को विशेष भूमिका अदा करनी होगी, क्योंकि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में उनकी ज्यादा हिस्सेदारी रही है।

पर इस समझौते से साफ हो गया कि ग्लोबल वार्मिंग के मसले पर अब खटास के दिन लद गए हैं। समझौते पर तमाम देशों की ओर से हस्ताक्षर होना इसके क्रियान्वयन की दिशा में पहला कदम है। इसके बाद विभिन्न देश घरेलू स्तर पर समझौते की पुष्टि की औपचारिकता पूरी करेंगे। समझौते के फलस्वरूप इन देशों को कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के अपने लक्ष्य और कार्यक्रम घोषित करने होंगे।

जाहिर है यह समझौता दुनिया भर में परिवहन, ऊर्जा, कृषि, नगर नियोजन आदि से संबंधित नीतियों और तकनीकों पर नए सिरे से सोचने और नए तौर-तरीके तलाशने का दबाव पैदा करेगा।
भारत ने सौर ऊर्जा का अपना उत्पादन 2022 तक चार गुना बढ़ाने का लक्ष्य तय किया है। पर और भी बहुत-से फैसले करने होंगे। पानी की समस्या दिनोंदिन और विकराल होती जा रही है। भूजल के अंधाधुंध दोहन ने कई इलाकों को ‘डार्क जोन’ की श्रेणी में ला दिया है, यानी वहां अब जमीन के नीचे से पानी निकालना संभव नहीं रह गया है। मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव आने का सिलसिला बढ़ रहा है। इसके चलते ऋतुचक्र में अनिश्चितता आ रही है, आपदाएं पहले से अधिक आने लगी हैं। समुद्र की सतह बढ़ने की आशंका समुद्रतटीय शहरों तथा महानगरों और द्वीपीय देशों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है।

वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण जन-स्वास्थ्य की सबसे बड़ी समस्या बन गए हैं। इससे जाहिर है कि सब कुछ पहले की तरह नहीं चलता रह सकता। खेती की ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी जिसमें कम से कम पानी की खपत हो। औद्योगिक इकाइयों को भी इसी तरह से ढालना होगा। परिवहन के ऐसे साधन और तौर-तरीके अपनाने होंगे जो कम से कम प्रदूषण करते हों। ऊर्जा के लिए सौर तथा पवन जैसे अक्षय व प्रदूषण-रहित स्रोतों का अधिक से अधिक दोहन करना होगा। बड़े पैमाने पर वर्षाजल संचयन के कार्यक्रम चलाने होंगे। रिहाइशी कॉलोनियां बनाने तथा नगर नियोजन पर नए सिरे से सोचना होगा, इस दृष्टि से कि वे कैसे अधिक से अधिक हरित तकनीक पर निर्भर हों। यह कोई विचारधारात्मक या कूटनीतिक मसला नहीं है। यह पूरी मानवता के अस्तित्व से जुड़ा सवाल है। इसे सबको मिल कर हल करना है।