प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंद्रह अगस्त को लाल किले से देश को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर तेजी से विकास करना है तो कम से कम दस साल के लोग जाति, धर्म के झगड़े भुला दें। लेकिन खुद उनकी पार्टी के लोग उनके इस आह्वान को जब चाहे तब पलीता लगाने में लग जाते हैं। स्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब कोई मंत्री भी इसमें शामिल हो जाए। केंद्रीय राज्यमंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने दिल्ली में भाजपा की एक चुनावी रैली में जो कहा वह इतना आपत्तिजनक था कि सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। उन्होंने कहा कि दिल्ली चुनाव में मुकाबला दो पक्षों के बीच है, एक तरफ राम के अनुयायी हैं; दूसरे पक्ष के लिए उन्होंने जो शब्द कहा वह गाली की तरह इस्तेमाल होता है जिसका अर्थ होता है अवैध संतानें। कोई मंत्री सार्वजनिक रूप से ऐसी भाषा बोले, तो यह राजनीतिक संस्कृति और राज-काज दोनों के पतन का ही नमूना है। इस बयान से साध्वी कहलाने वाली निरंजन ज्योति ने अपने पद की गरिमा तार-तार कर दी है। वे सांसद हैं, इसलिए संसदीय मर्यादा का भी हनन हुआ है। यही नहीं, उन्होंने हिंदुओं के आराध्य राम का भी मान नहीं रखा। क्या राम के अनुयायी बस वही हैं जो भाजपा में हैं?

साध्वी निरंजन ज्योति को पिछले महीने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। उसी समय गिरिराज सिंह को भी मंत्रिमंडल में जगह दी गई, जिन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान कहा था कि मोदी-विरोधियों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। साध्वी ज्योति के बयान पर किरकिरी होने के बाद प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों और सांसदों को संभल कर बोलने की सलाह दी है। पर जो फजीहत हुई, क्या उसकी जवाबदेही से प्रधानमंत्री पल्ला झाड़ सकते हैं? उन्होंने ऐसे लोगों को मंत्रिमंडल में जगह क्यों दी, जो नफरत फैलाने वाले बयान देने में संकोच नहीं करते? आपत्तिजनक बयान का मामला तूल पकड़ने और संसद में विपक्ष के हंगामे ने साध्वी ज्योति को माफी मांगने के लिए मजबूर कर दिया। पर क्या इस खेद-प्रकाश से सब कुछ ठीक हो जाएगा? क्या भाजपा समेत संघ परिवार के लोग तनाव और घृणा फैलाने वाले बयान देना बंद कर देंगे? दिल्ली में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। क्या साध्वी निरंजन ज्योति का आपत्तिजनक बयान केवल जुबान फिसल जाने का मामला है? त्रिलोकपुरी दंगों के जख्म ताजा ही थे कि दिल्ली के बवाना में सांप्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश हुई, जिसमें भाजपा के स्थानीय विधायक का भी नाम आया। बवाना से पहले नंदनगरी, मजनू का टीला और तीमारपुर में भी वैसी कोशिशें हो चुकी थीं।

ऐसा लगता है कि दिल्ली चुनाव के मद््देनजर भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की फिराक में है और साध्वी निरंजन ज्योति ने जो कुछ कहा वह इसी रणनीति का हिस्सा रहा होगा। इसलिए खेद-प्रकाश के बावजूद सवाल बना रहता है। भाजपा सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है, क्या अब भी वह संकीर्णता का दामन नहीं छोड़ना चाहती? आखिर वह देश को किधर ले जाना चाहती है? क्या इसी तरह अच्छे दिन आएंगे? दिल्ली में चुनाव वह जन-सरोकार से जुड़े मुद््दों पर लड़ना चाहती है, या सांप्रदायिक हथकंडों के सहारे? एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में प्रधानमंत्री ने भारत के मुसलमानों को देशभक्त कहा। फिर, किन्हें लक्ष्य करके जहर उगला जाता है? क्या यह एक तरह का ‘कार्य-विभाजन’ है कि प्रधानमंत्री दुनिया को सुनाने के लिए भली-भली नसीहतें देते रहें और उनकी पार्टी के लोग उससे विपरीत एजेंडे पर चलें? क्या इसी तरह सबका साथ सबका विकास के नारे पर अमल होगा?

 

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