जब भी गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दलों को एकजुट करने की कवायद चलती है तो सबसे पहला सवाल यही उठाया जाता है कि क्या यह कोशिश कोई ठोस शक्ल अख्तियार कर पाएगी, और कर भी ली, तो क्या टिकाऊ हो पाएगी। यह संदेह स्वाभाविक है, क्योंकि इस तरह की तमाम कोशिशें नाकाम रही हैं। लेकिन समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (एकी), इंडियन नेशनल लोकदल और जनता दल (सेक्युलर) के नेताओं ने नया मोर्चा बनाने का नहीं, विलय कर नया दल बनाने का एलान किया है। एक महीने पहले ही उन्होंने इसके संकेत दे दिए थे। अब गुरुवार को हुई बैठक में- जिसमें एचडी देवगौड़ा, मुलायम सिंह, शरद यादव, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, दुष्यंत चौटाला आदि शामिल थे- नया दल बनाने का औपचारिक निर्णय भी कर लिया गया। मुलायम सिंह को विलय के तौर-तरीके तय करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। जो लोग तीसरे मोर्चे के प्रयासों की खिल्ली उड़ाते या उन्हें बेकार मानते रहे हैं वे शायद विलय की इस घोषणा को भी उसी नजरिए से देखें।
यह सही है कि संभावित नए दल की अनेक सीमाएं होंगी। लालू, मुलायम या नीतीश कुमार शायद ही कोई नया आकर्षण पैदा कर पाएं। फिर, जो पार्टियां विलय करने को तैयार हैं वे मिल कर भी देश भर में अपनी मौजूदगी का दावा नहीं कर सकतीं। लोकसभा में उनकी कुल सदस्य संख्या सिर्फ पंद्रह है। लेकिन दूसरी तरफ कई बातें ऐसी हैं जो संभावित नए दल के महत्त्व को रेखांकित करती हैं। एक तो यह कि राज्यसभा में पच्चीस सदस्यों के साथ यह तीसरी सबसे बड़ी पार्टी होगी, जिस सदन में भाजपा को फिलहाल बहुमत हासिल नहीं है। फिर यह एक ऐसी पार्टी होगी, जिसकी मौजूदगी देश भर में भले न हो, पर एक राज्य तक सिमटी हुई भी नहीं होगी। उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और हरियाणा तो उसके प्रभाव क्षेत्र होंगे ही, कुछ और राज्यों में भी वह थोड़ा-बहुत पैर पसार सकती है। विलय के लिए तैयार इन दलों ने महीने भर पहले ही संसद में समान रुख लेकर चलने का फैसला कर लिया था। बाजार-केंद्रित अनेक मसलों पर कांग्रेस असमंजस में रहती है, और अंतत: विरोध का निर्णय करना उसके लिए मुश्किल होगा, क्योंकि कई संभावित विधेयकों की पहल यूपीए सरकार के समय ही हुई थी। लेकिन नया दल ऐसे मामलों में भी मुखर हो सकता है और इस तरह संभव है वह विपक्ष के तौर पर कांग्रेस से ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाए।
यही वह बात है जो कांग्रेस और भाजपा, दोनों के लिए समान रूप से चिंताजनक हो सकती है। यह सही है कि जो पार्टियां विलय कर नई शक्ल अख्तियार करना चाहती हैं, वे भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी की बढ़ी हुई ताकत से भयभीत हैं और शायद इसी डर ने उन्हें एक होने के लिए प्रेरित किया हो। पर अगर भाजपा या मोदी की चुनौती का सामना करने के लिए एक नया दल बनाने की तैयारी चल रही है, तो इसमें हर्ज क्या है! कमजोर विपक्ष रहने से सत्ता के निरंकुश हो जाने का अंदेशा रहता है। फिर, विलय को तैयार दलों की वैचारिक पृष्ठभूमि समान रही है, जनता दल के तौर पर कभी वेएक ही थे। इसलिए उनका अलग-अलग वजूद क्यों बना रहे! कई कमियों और सीमाओं के बावजूद संभावित दल की एक प्रासंगिकता भी हो सकती है। लालू और नीतीश बिहार के और मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के अगले विधानसभा चुनाव को लेकर चिंतित होंगे। मगर सिर्फ चुनाव की चिंता में बनाई जाने वाली रणनीति ज्यादा दूर तक नहीं जा सकती। विपक्ष की राजनीति में उभरे शून्य को भर कर ही भाजपा की चुनौती का मुकाबला किया जा सकेगा। जो लोग सांप्रदायिकता-विरोध और आर्थिक नीतियों को जनपक्षधर बनाने की लड़ाई लड़ेंगे वही इस शून्य को भर पाएंगे।
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