जनसत्ता 17 नवंबर, 2014: आस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन शहर में आयोजित जी-20 के शिखर सम्मेलन से कुछ खास हासिल होने की उम्मीद पहले ही कम थी। यही नहीं, यह अंदेशा भी जताया जा रहा था कि जी-20 की ताजा बैठक रूस और अमेरिका-यूरोप के बीच चल रहे तनाव की भेंट चढ़ जा सकती है। यह आशंका काफी हद तक सही साबित हुई। यूक्रेन के अलगाववादियों को हथियारों समेत रूस से मिल रही मदद का आरोप ब्रिसबेन में छाया रहा।

औपचारिक वार्ताओं के अलावा पश्चिमी खेमे के नेताओं ने रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन से मुलाकात के दौरान भी यह मसला उठाया। पुतिन इस सम्मेलन में शिरकत न करें, यह मांग भी कई तरफ से उठी थी, जिस पर मेजबान देश के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने कान नहीं दिया। पर पुतिन को यूक्रेन में दखलंदाजी से बाज आने की चेतावनी बराक ओबामा से लेकर डेविड कैमरन और एंजेला मर्केल तक, पश्चिमी खेमे के सभी नेताओं ने दी। एक बार फिर वैसी ही स्थिति थी, जैसी तब नजर आ रही थी जब यूक्रेन के अलगाववादियों ने मलेशियाई विमान को मार गिराया था। तब रूस की काफी किरकिरी हुई थी। अमेरिका और फिर यूरोप ने भी उस पर कुछ व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए। लेकिन पुतिन पर इसका असर दिखता नहीं है। वे मानते हैं कि इन प्रतिबंधों से रूस को नुकसान हुआ है, पर साथ में यह भी कहते हैं कि नुकसान बाकी विश्व को भी हो रहा है। लेकिन इससे उनकी हेठी ही जाहिर होती है।

यह सही है कि यूक्रेन के मामले में रूस का रवैया दुनिया के लिए चिंता का विषय है। पर क्या सुरक्षा संबंधी मसलों को सुलझाने के लिए जी-20 बनाया गया? इस समूह का उदय विश्व-अर्थव्यवस्था की मुश्किलें दूर करने के लिए हुआ था। यों इसके वित्तमंत्रियों की बैठक 1999 से होती आ रही थी, पर मंदी के मद्देनजर 2008 में पहली बार शिखर सम्मेलन बुलाया गया और तब से इसका सिलसिला चला आ रहा है। मंदी से निपटने में उस पहल के योगदान को सभी मानते हैं। जी-20 यों तो जी-7 जैसा समरस मंच नहीं है। जी-7 में जहां अमेरिका और यूरोप के धनी देश हैं, वहीं जी-20 में उनके अलावा चीन, भारत और ब्राजील जैसे देश भी। बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों का यह समूह विश्व-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने की क्षमता रखता है, जो कि मंदी के समय साबित भी हो चुका है। लेकिन बाद के वर्षों में इसकी चमक कम हुई। और ताजा सम्मेलन को देखते हुए तो एजेंडा, नीतियां और कार्यक्रम तय करने की उसकी क्षमता पर सवाल उठे हैं।

ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने कहा था कि विकास और रोजगार की दर बढ़ाना सम्मेलन का मुख्य मुद््दा होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इससे सहमति जताते हुए काले धन की बाबत सूचनाओं के आदान-प्रदान को भी प्राथमिकता देने का आग्रह किया। इससे किसी को असहमति नहीं थी। मगर ये मुद्दे किनारे चले गए और सम्मेलन पर यूक्रेन संबंधी विवाद हावी हो गया। अमेरिका, ब्रिटेन समेत पश्चिमी खेमे ने पुतिन को आगाह किया कि वे यूक्रेन के अलगाववादियों को उकसाना और मदद देना बंद करें, वरना रूस पर प्रतिबंध और कड़े किए जा सकते हैं।

निश्चय ही यूक्रेन संबंधी विवाद सुलझाया जाना चाहिए। लेकिन जी-बीस इसका जरिया नहीं हो सकता। यह भू-राजनीतिक विवादों को सुलझाने का मंच नहीं है, चाहे वह विवाद यूक्रेन का हो या दक्षिण चीन सागर का या कोई और। इसका उपयुक्त मंच संयुक्त राष्ट्र ही है। जी-बीस को इस तरह के मामलों का पंचाट बनाने की कोशिश से न सिर्फ यह अपने मकसद से दूर चला जाएगा और इसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े होंगे, बल्कि इसका वजूद भी खतरे में पड़ सकता है।

 

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