हमने किसी सोते हुए बच्चे को देखा होगा। उसे देखते हुए क्या हमें ऐसा नहीं लगता कि यह कितना मासूम है? उसके चेहरे पर जो मासूमियत होती है, उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती। वह चेहरा हमारे सामने सदैव होता है, बच्चे के बड़े होने तक। हम उसी चेहरे को हमेशा प्यार करते हैं। एक और चेहरा हमारे सामने होता है। हम कोशिश करके उसे याद कर सकते हैं। हमसे कुछ सहायता प्राप्त करने वाला या कहा जाए कि हमसे उधार मांगने वाला चेहरा।

इस चेहरे के भाव कुछ अलग से होते हैं, पर वह भी मासूम ही होता है। इस चेहरे पर दो तरह के भाव पाए जाते हैं। एक तो स्वाभिमान का, दूसरा शर्म का। जो हाथ पहले कभी किसी के आगे नहीं फैले होंगे, किसी वक्त वही हाथ कुछ मांगने के लिए किसी के सामने फैलाने पड़ते हैं। जो हाथ सदैव देने के लिए उठे होते हैं, बाद में वही मांगने के लिए उठते हैं। इन दोनों भावों को हम उस वक्त देख सकते हैं, जब हमसे कोई पहली बार उधार मांग रहा हो।

मासूमियत वाले दो चेहरे और होते हैं। ये चेहरे होते हैं हमारे माता-पिता के। यह बात भले ही गले से नीचे नहीं उतर रही हो, पर यह सच है कि माता-पिता के चेहरे भी मासूम होते हैं। अगर हमें अपने माता-पिता के चेहरे पर मासूमियत नजर नहीं आ रही है, तो हमें अपनी समझदारी और दृष्टि पर गौर करने व उसमें सुधार करने की जरूरत है। अफसोस है कि हमें अपने माता-पिता कभी मासूम नहीं लगते।

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हालांकि, मां को इस सामाजिक व्यवस्था में मिले दर्जे की वजह से सर्वोच्च स्थान पर देखा जाता रहा है और इस नाते कई बार उनके चेहरे में मासूमियत दिखती है, जो स्वाभाविक और सही है। लेकिन पिता को आमतौर पर इस दृष्टि से नहीं देखा जाता। यह वह चेहरा होता है, जो सदैव सख्त दिखाई देता है। लोग इसी सख्त और गंभीरता वाले चेहरे से डर जाते हैं। हम उनके भीतर अजस्र रूप से बहती उस स्वच्छंद नदी के प्रवाह को नहीं देख पाते, जो सदैव बना रहता है। जो देख पाते हैं, वे बहुत ही भाग्यशाली होते हैं।

आज जीवन मूल्य तेजी से बदल रहे हैं। सामाजिक जीवन अब कुछ ऐसी जटिलताओं से गुजर रहा है कि पिता-पुत्र के बीच की दूरियां बहुत बढ़ गई हैं। आपाधापी इतनी है कि घर में रहने वाले और तेजी से बड़े होते बच्चों के साथ संवाद तो जैसे गायब हो गया है। कई बार संवाद का काम आंखें ही कर लेती हैं। प्यार से गले लगाने के दृश्य तो अब यदा-कदा ही दिखाई देते हैं। पिता-पुत्र के बीच संवाद के सेतु का काम मां को ही करना होता है। जहां मां न हो, वहां तो स्थिति और भी विकट होती है।

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बच्चे को बड़ा होते देखना भला किसे नहीं भाता, पर बच्चा इतना भी बड़ा न बन जाए कि उससे संवाद करने के लिए वातावरण को हल्का करने की आवश्यकता पड़े। दिन भारी लगने लगते हैं, जब बच्चे से बात करने के लिए पिता को इंतजार करना पड़ता है। संभव है कई घरों में वातावरण हल्का रहता हो। पिता और पुत्र एक मित्र की तरह संवाद करते दिखाई देते हों।

साथ-साथ घूमने जाना, एक साथ मिल कर भोजन करना आदि क्रियाकलाप हों। ऐसे माहौल में पता ही नहीं चलता कि घर में किसकी चलती है, पिता की या बेटे की। एक उम्र के बाद पिता और भी अधिक खामोश होने लगते हैं।

कई चीजें उनकी आंखों के सामने से गुजरती हैं, वे आंखें उसे स्वीकार नहीं करतीं, पर पिता के सामने उसे स्वीकारने की विवशता भी होती है। एक अनजाना-सा संवाद उनके भीतर ही उमड़ता-घुमड़ता रहता है, जिसे वे शब्द देना चाहते हैं। मगर, वे शब्द होठों तक आते-आते रह जाते हैं।

जिसने भी माता-पिता की मासूमियत को पहचान लिया, वह उतना ही अधिक भाग्यशाली होता है। माता-पिता कभी भी अपने बच्चों को यह नहीं बताते कि उन्होंने उसके लिए क्या-क्या किया। इसे बच्चा ही अगर ठीक से समझे, तो बेहतर होता है। जो संतान अपने माता-पिता की मासूमियत को जानती है, वह अपने जीवन में कभी विफल नहीं हो सकती। उसके जीवन की चुनौतियों के आगे उसके माता-पिता का संघर्ष, समर्पण और त्याग होता है। धीरे-धीरे बड़ा होता बच्चा उनके इस संघर्ष का मौन साक्षी होता है।

बच्चे का यही मौन तब मुखर होता है, जब वह मां या पिता बनता है। इसके लिए उसे समय की बहुत ही लंबी नदी को तैरकर पार करना होता है।

माता-पिता खामोश कविता की तरह होते हैं। उनकी खामोशी के पीछे ही छिपा होता है प्यार का अजस्र स्रोत, जो सदैव प्रवाहमान होता है। इसमें भीगने का अवसर बहुत ही कम संतानों को मिलता है। पर जिसे भी मिलता है, वह निहाल हो उठता है।

चट्टान के नीचे मीठे पानी का सोता ऐसे ही नहीं मिलता। उसके लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। इस संघर्ष में वह परिश्रम होता है, जो अनजाने में उनसे ही संतानों को विरासत के रूप में मिलता है। खामोश कविता सदैव हमारे जीवन में अपना असर दिखाती रहे तो जीने की राह और आसान हो जाती है।