दहेज प्रथा पर कानूनन रोक है, लेकिन सच्चाई है कि आज भी दहेज के लिए महिलाओं का उत्पीड़न जारी है। दहेज निषेध अधिनियम के तहत दर्ज मामले हर वर्ष बढ़ रहे हैं। तमाम जागरूकता के बावजूद समाज की तस्वीर नहीं बदली है। हर दिन महिलाओं की जान जा रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2023 की रपट के मुताबिक दहेज संबंधी अपराध के मामलों में चौदह फीसद की बड़ी बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
उत्तर प्रदेश अकेला राज्य है, जहां सबसे ज्यादा 7,151 मामले दर्ज किए गए। जबकि बिहार दूसरे स्थान पर है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाओं की जिंदगी किस तरह की सामाजिक स्थिति के बीच गुजर रही है। उपभोक्तावाद और आय में विषमता ने स्थिति और खराब की है। राष्ट्र की प्रगति और शिक्षा के प्रसार के बाद उम्मीद बंधी थी कि हमें इन बुराइयों से मुक्ति मिलेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सामाजिक सोच में देश वहीं खड़ा है। दहेज प्रथा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इससे अन्य दूसरी बुराइयां भी पैदा हो गईं।
लड़के-लड़कियों में भेदभाव और भ्रूण हत्या जैसी समस्या की जड़ में दहेज भी एक बड़ी वजह है। ऐसे में एनसीआरबी की नई रपट को गंभीरता से लेना होगा। इस संबंध में बने कानून के बेजा इस्तेमाल की बात अक्सर उठाई जाती है। मगर गिनती के ऐसे मामलों के बरक्स इस सच्चाई से कौन इनकार करेगा कि दहेज के लिए महिलाओं की रोज हत्या हो रही है। एनसीआरबी के ही आंकड़े बताते हैं कि 2023 में देश भर में 6,100 से अधिक महिलाओं की मौत हो गई। बेटियों को पढ़ाने और उनके सशक्तीकरण के बाद भी अगर दहेज के मामले बढ़ रहे हैं, तो जाहिर है यह हमारे समाज और व्यवस्था की बड़ी विफलता है। बहुत हद तक पितृसत्तात्मक सोच भी जिम्मेदार है।
आज भी महिलाओं को दहेज संबंधी मामलों में जल्दी न्याय नहीं मिलता। ज्यादातर मामलों में महिलाएं चुपचाप उत्पीड़न सहती हैं। आमतौर पर ऐसे मामले थानों में दर्ज नहीं होते। फिर भी दहेज अपराधों में जिस तरह की अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, उससे स्पष्ट है कि इस कुप्रथा के खिलाफ लड़ाई अकेले कानून से नहीं लड़ी जा सकती और इस मसले पर समूची सामाजिक सोच को बदलने की जरूरत है।