चिकित्सकीय लापरवाही की वजह से किसी मरीज की बीमारी ज्यादा बिगड़ कर स्थायी नुकसान हो जाने या फिर मौत हो जाने की खबरें आती रहती हैं। लेकिन बहुत कम मामलों में मरीज या उनके परिजन ऐसी लापरवाही के खिलाफ शिकायत दर्ज करा पाते हैं। दरअसल, ज्यादातर लोग उपभोक्ता अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं हैं और ऐसी घटनाएं होने पर अस्पताल या डॉक्टरों की ओर से बताई जाने वाली वजहों को स्वीकार कर लेते हैं, या खुद को असहाय मान चुप रह जाते हैं। इलाज में लापरवाही के चलते किसी व्यक्ति के शरीर का कोई हिस्सा स्थायी तौर पर नाकाम हो जाता है या फिर उसकी जान भी चली जाती है। ऐसे ही एक मामले में शीर्ष उपभोक्ता फोरम ने जो फैसला सुनाया है, वह शायद अस्पतालों और डॉक्टरों को मरीजों के प्रति अपने रवैये पर सोचने पर मजबूर करे। गौरतलब है कि एक महिला अपने नवजात शिशु का इलाज कराने एक अस्पताल में गई, लेकिन वहां डॉक्टरों की लापरवाही के चलते हमेशा के लिए बच्चे की आंख की रोशनी चली गई। हालांकि अस्पताल और डॉक्टरों ने लापरवाही के आरोपों से इनकार किया, लेकिन उपभोक्ता अदालत ने शिकायत को सही पाया और बतौर हर्जाना पीड़ित परिवार को चौंसठ लाख रुपए भुगतान करने के आदेश दिए। निश्चय ही किसी व्यक्ति की स्थायी शारीरिक क्षति या मृत्यु की कोई कीमत तय नहीं हो सकती। पर मरीज या उसके परिजनों के लिए यह तात्कालिक तौर पर राहत जरूर होती है। फिर इससे लापरवाही बरतने के खिलाफ एक सख्त संदेश जाता है। ऐसे मामलों में मरीजों को मुआवजा देने के मामले पहले भी आए हैं। लगभग ढाई साल पहले चिकित्सकीय लापरवाही के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़ित मरीज और उसके परिजन को करीब छह करोड़ रुपए हर्जाना अदा करने का आदेश दिया था।

दरअसल, चिकित्सा का पेशा ऐसा है जिसके प्रति समाज एक तरह से आश्रित के भाव में रहता है। किसी भी अस्पताल या क्लीनिक में जाने के बाद मरीज और उनके परिजन पूरी तरह डॉक्टरों की सलाह पर निर्भर रहते हैं। लेकिन सरकारी अस्पतालों में आम लापरवाही के बरक्स निजी अस्पतालों में भी मरीजों के परिजनों से बेहतर इलाज के नाम पर ज्यादा से ज्यादा पैसे वसूलना ही मकसद होता जा रहा है। हमारे यहां मरीजों के साथ अस्पतालों और डॉक्टरों की मनमानी की एक बड़ी वजह यह भी है कि चिकित्सकीय लापरवाही के खिलाफ कानूनी चुनौती बहुत कम सामने आ पाती है। हालांकि उपभोक्ता कानूनों में बाकायदा ऐसी गड़बड़ी को अपराध मान कर उसके लिए दंड का प्रावधान है। लेकिन जागरूकता और संसाधनों के अभाव में ज्यादातर लोग कानून का सहारा नहीं ले पाते। फिर, अस्पताल या डॉक्टर की लापरवाही को साबित करना कई बार बहुत मुश्किल काम होता है। बल्कि ऐसे उदाहरण आम हैं कि गंभीर हालत में होने पर अस्पताल पहले ही मरीज के परिजन से किसी ऐसे करारनामे पर हस्ताक्षर करा लेते हैं, जिसके बाद शिकायत का कानूनी पहलू कमजोर पड़ जाता है। उपभोक्ता अदालत के ताजा फैसले ने चिकित्सकीय लापरवाही के खिलाफ डॉक्टरों और अस्पतालों को चेताया जरूर है, पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे मामलों में सबूत जुटाना और कानूनी लड़ाई एक पेचीदा प्रक्रिया है। इसलिए नियमन और निगरानी के और बेहतर उपाय करने होंगे।