भारतीय समाज में विवाह एक सामाजिक परंपरा है, लेकिन यह इस संबंध में बने कानून के दायरे में भी है। अगर किन्हीं कारणों से पति और पत्नी के बीच दरार आ जाती है और सुलह नहीं हो पाती तथा संबंध आखिर अलगाव के रास्ते की ओर बढ़ जाता है, तो इसके लिए एक कानूनी प्रक्रिया रही है। उसमें अंतिम फैसले तक पहुंचने से पहले खास अंतराल भी तय किया गया है।

मगर इस मसले पर जिस तरह की नई परिस्थितियां बन रही हैं और जैसी जटिलताएं उभर रही हैं, उसके मुताबिक इस संबंध में नई व्यवस्था की जरूरत महसूस की जा रही थी। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय पीठ ने अब विवाह विच्छेद या तलाक को लेकर यह व्यवस्था दी है कि वह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी के मुताबिक आपसी सहमति से तलाक लेने के लिए निर्धारित छह से आठ महीने की प्रतीक्षा अवधि को समाप्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विशेष शक्तियों का उपयोग कर सकती है। जाहिर है, अब अगर पति और पत्नी के आपसी रिश्तों में किसी भी वजह से आ गई दरार को खत्म कर पाना मुमकिन नहीं हो पा रहा है, तो उसके हल के रूप में तलाक लेने के लिए पहले की तरह कम से कम छह महीने तक इंतजार करने की जरूरत नहीं रह जाएगी।

शीर्ष अदालत ने इस बिंदु पर कहा कि पति-पत्नी के बीच आई दरार को पाटना संभव नहीं हो पा रहा है तो ऐसी शादी को आपसी सहमति के आधार पर छह महीने से पहले भी खत्म किया जा सकता है। दरअसल, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी के मुताबिक अभी तक जो व्यवस्था रही है, उसमें आपसी सहमति से तलाक की मांग करने वाला प्रस्ताव दाखिल करने के बाद पक्षकारों को दूसरा प्रस्ताव पेश करने से पहले कम से कम छह महीने और अधिकतम अठारह महीने तक इंतजार करना पड़ता था।

इसका उद्देश्य यह था कि तलाक के लिए अर्जी देने वाले दोनों पक्षों को अपने फैसले पर आत्मनिरीक्षण करने के निर्णय पर फिर से विचार करने का अवसर मिल सके। ऐसे मामले भी हैं, जिनमें आपसी विवाद तात्कालिक तौर पर तो अलगाव की स्थिति पैदा करता है, लेकिन थोड़ा वक्त बीतने के साथ दोनों पक्षों के भीतर थोड़ी नरमी आती है और कभी अलग होने का फैसला बदल भी सकता है। ऐसी स्थिति में कानूनन पति और पत्नी के नए रुख के आधार पर ही अदालत का फैसला आता है।

कई मामलों में तलाक का प्रस्ताव अदालत में पेश किए जाने के बाद कानूनी तौर पर निर्धारित प्रतीक्षा की अवधि कठिनाई बनती देखी गई। अब सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले के बाद इस मसले की जटिलता थोड़ी आसान हुई है। यह छिपा नहीं है कि वक्त के साथ लोगों के सोचने-समझने और खुद को बरतने का तौर-तरीका बदला है।

खासकर अगर पति और पत्नी के बीच किन्हीं वजहों से ऐसी दरार आ गई हो, जिसके हल की कोई भी गुंजाइश न बची हो तो ऐसे में साल-डेढ़ साल की अवधि इंतजार करना बेमानी लगता है। कभी-कभी एक पक्ष तलाक को अंतिम हल मानता है, मगर दूसरा पक्ष इसका विरोध करता है। ऐसी स्थिति में शीर्ष अदालत का ताजा फैसला नई दिशा देगा। किसी भी सामाजिक बदलाव और इसके लिए लोगों को तैयार होने में थोड़ा वक्त लगता है और उसका हल कई बार कानून के जरिए निकालना आसान होता है।