यह विचित्र है कि फ्रांस जैसे विकसित देश में भी सरकार की वैसी नीतियों के खिलाफ आम जनता को सड़क पर उतरने की जरूरत पड़ रही है, जिसमें आरोप के मुताबकि, लोगों के जीवन को बेहतर करने के लिए कुछ भी नहीं किया गया। गौरतलब है कि राजनीतिक अस्थिरता को झेलते फ्रांस में बजट कटौती को लेकर पहले ही विरोध का माहौल बना हुआ था। ऐसे में दो राष्ट्रीय छुट्टी को रद्द करने, 2026 में पेंशन पर रोक लगाने और स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च में अरबों डालर की कटौती करने जैसे प्रस्तावों ने लोगों के भीतर व्यापक आक्रोश पैदा किया।
इन सबको फ्रांस के लोग कार्य-संस्कृति और सेहत के मुद्दे के साथ खिलवाड़ के तौर पर देख रहे हैं और सरकार की ओर से मिलने वाली सेवाओं से वंचित करने का आरोप लगा रहे हैं। बीते कुछ वर्षों के दौरान फ्रांस में अलग-अलग मुद्दों पर जिस तरह जनाक्रोश और व्यापक पैमाने पर हिंसक विरोध प्रदर्शन देखे गए, एक तरह से उसी की अगली कड़ी की तरह इस बार भी ‘सब कुछ रोक दो’ के नारे के तहत भारी संख्या में लोगों का सड़कों पर उतर आना कोई हैरानी की बात नहीं है।
फ्रांस में पहले भी भड़क चुकी है हिंसा
यह समझना मुश्किल है कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को अपनी सरकार के खिलाफ बार-बार आंदोलन की वजहों पर विचार करने की जरूरत क्यों नहीं महसूस हो रही। हालांकि यह पहली बार नहीं है कि फ्रांस में लोगों का गुस्सा इस कदर भड़क गया है और सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन दिख रहे हैं। इससे पहले भी पिछले कुछ वर्षों के दौरान कई ऐसे मौके आए, जब सरकार के नीतिगत फैसलों के जनता पर पड़ने वाले विपरीत असर के मद्देनजर वहां व्यापक जनाक्रोश उभरा और नतीजतन भारी पैमाने पर हिंसा देखी गई।
पेंशन मिलने की उम्र बढ़ाने, ईंधन की कीमत में बढ़ोतरी, लैंगिक समानता और महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देने जैसे मुद्दों पर भी वहां कई बार आंदोलन हुए हैं। विडंबना यह है कि बार-बार लोगों के विरोध और उसकी व्यापकता के बावजूद फ्रांस की सरकार को शायद इस बात पर चिंता करने की जरूरत नहीं लग रही कि आखिर नीतियां बनाने या कोई नीतिगत फैसले लेने में उससे कौन-सी चूक हो रही है, जिससे लोगों के बीच नाराजगी फैलती है।