दुनिया भर में बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को लेकर पिछले कई वर्ष से लगातार चिंता जताई जा रही है। अब इसकी वजहें स्पष्ट हैं। मगर मुश्किल यह है कि जब भी उन वजहों को दूर करने की बात आती है, तो विकसित देश अपनी भूमिका को कम करके पेश करते हैं और इसके हल के लिए उठाए जाने वाले कदमों को लागू करने की जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोप देते हैं।
जबकि समूची धरती पर जलवायु संकट जिस स्तर तक गहरा हो चुका है, उसमें मुख्य रूप से विकसित देशों की जिम्मेदारी रही है। इसके बावजूद इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित हर बैठक या सम्मेलन में तीसरी दुनिया के या विकासशील देशों ने समस्या के समाधान को लेकर अपेक्षित गंभीरता दिखाई है, उसमें अपनी ओर से हर संभव योगदान किया है।
इसी को इंगित करते हुए प्रधानमंत्री ने विकास देशों को अपेक्षित जलवायु वित्तपोषण और प्रौद्योगिकी संबंधी हस्तांतरण सुनिश्चित करने का आह्वान करते हुए कहा कि इस पर गौर किया जाना चाहिए कि इन देशों ने जलवायु संकट बढ़ाने में कोई योगदान नहीं किया है, इसके बावजूद वे इसके समाधान का हिस्सा बनने के इच्छुक हैं।
दरअसल, सीओपी28 में भाग लेने दुबई गए प्रधानमंत्री ने एक तरह से जलवायु संकट पर विकासशील देशों के सामूहिक रुख को प्रतिनिधि स्वर दिया है। सच यह है कि बढ़ते तापमान और उसकी वजह से पैदा होने वाली पर्यावरणीय समस्या के पीछे विकसित देशों की ही भूमिका ज्यादा है। खासकर कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन को लेकर दुनिया भर में विशेष उपायों को अपनाने या लागू करने पर जोर दिया जाता है।
इस समस्या के बढ़ने में अपनी बहुत बड़ी जिम्मेदारी न होने के बावजूद कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर जब भी कोई मानक तय किया गया, उस पर अमल के लिए विकासशील देशों ने अपनी ओर से हर संभव उपाय किए, सरोकार जताया, जबकि विकसित देशों ने अलग-अलग कारण बता कर इसमें भागीदारी निभाने को लेकर टालमटोल ही किया।
कई बार ऐसे मौके आए जब विकासशील देशों को आर्थिक सहायता मुहैया कराने के मामले में पर्यावरण असंतुलन को कसौटी बनाया गया। इसे रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने भी कहा कि जलवायु वित्तपोषण पर प्रगति इस मसले पर जरूरी कार्रवाई पर बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं के अनुरूप दिखनी चाहिए।
यह किसी से छिपा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन एक सामूहिक चुनौती है, जिससे निपटने के लिए एकीकृत वैश्विक प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। जहां तक भारत का सवाल है, नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता और संरक्षण, वनीकरण जैसे कई क्षेत्रों में भारत की उपलब्धियां इसकी प्रतिबद्धता का सबूत हैं।
यह सब दरअसल जलवायु संकट या बढ़ते तापमान की समस्या को दूर करने के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य से उठाए गए कदम हैं। भारत के अलावा भी विकासशील देशों ने अपनी सीमा में इस मसले पर योगदान दिया है, ताकि इस वैश्विक चिंता से निपटने में मदद मिल सके। हालांकि यह समझना मुश्किल है कि बढ़ते तापमान को एक सबसे बड़े संकट के रूप में पेश करने वाले विकसित देश अपने यहां कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने या कम करने को लेकर ईमानदार पहल क्यों नहीं करते।
जरूरत इस बात की है कि जिन विकासशील देशों में इस समस्या के हल को लेकर अपेक्षित गंभीरता दर्शायी जा रही है, उन्हें वित्तीय सहायता मुहैया कराई जाए। मगर जलवायु संकट में कमी तब तक संभव नहीं है, जब तक विकसित देश इस दिशा में जरूरी इच्छाशक्ति के साथ काम न करें।