दुनिया भर में तपेदिक यानी क्षयरोग या टीबी को जड़-मूल से खत्म करने के लिए कई दशकों से बहुस्तरीय प्रयास चल रहे हैं। टीबी के खिलाफ पहला अभियान 1995 में शुरू हुआ था, लेकिन इतना लंबा वक्त बीत जाने के बावजूद आज भी लाखों लोग इस गंभीर बीमारी की चपेट में आ रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से मंगलवार को जारी एक सौ बानबे देशों और क्षेत्रों के आंकड़ों पर आधारित विश्व तपेदिक रिपोर्ट, 2023 में यह तथ्य उजागर हुआ है कि वैश्विक स्तर पर 2022 में करीब एक करोड़ छह लाख लोग टीबी से बीमार पड़े। यानी 2021 के मुकाबले इस आंकड़े में तीन लाख की बढ़ोतरी हुई।

यह सही है कि इस दौरान कोरोना महामारी की वजह से लगभग समूचा चिकित्सा तंत्र इसके शिकार रोगियों की देखभाल में लगा था और इसका टीबी से संबंधित सेवाओं पर काफी हद तक विपरीत असर पड़ा था। हालात के संभलने के बाद फिर से इस ओर ध्यान देना संभव हो सका। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हाल के महीनों में दुनिया भर में टीबी की जांच और उपचार संबंधी सेवाओं में व्यापक सुधार हुआ है और इसके नतीजे जमीनी स्तर पर देखने में आए हैं।

यह जगजाहिर रहा है कि जब तक इस बीमारी का इलाज नहीं खोजा जा सका था, तब तक दुनिया के तमाम हिस्से में लोग इसकी चपेट में आकर मरते रहे। इसके रोगियों को यह पता भी नहीं चल पाता था कि यह कौन-सी बीमारी है और इसे ठीक कैसे किया जाए। लेकिन चिकित्सा विज्ञान के विकास के साथ इसका इलाज खोजा गया और अब हर वर्ष लाखों लोगों को इससे बचाया जा रहा है।

डब्लूएचओ की रिपोर्ट में भी बताया गया है कि टीबी से निपटने के वैश्विक प्रयासों से सन 2000 के बाद से अब तक साढ़े सात करोड़ से ज्यादा लोगों की जान बचाई गई है। इसके बावजूद यह अफसोस की बात है कि अब भी इस जटिल बीमारी के उन्मूलन में कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिल सकी है और यह दुनिया का दूसरा प्रमुख ‘संक्रामक हत्यारा’ बना हुआ है। खासतौर पर दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीकी देशों में स्थिति अब भी ऐसी है, जिसे चिंताजनक कहा जा सकता है।

यह स्थिति तब है, जब चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में लगातार प्रगति हुई, जटिल रोगों का पता चलने के बाद उनके इलाज भी खोजे गए। टीबी एक ऐसी बीमारी है, जो गंभीर और जटिल, बल्कि बिगड़ जाने पर जानलेवा भी है। कुछ साल पहले तक भारत में हर साल टीबी से पांच लाख लोगों की मौत हो जाती थी। अब भी इससे सालाना तीन से चार लाख के बीच लोगों की जान चली जाती है।

सवाल है कि आज तपेदिक का कारगर इलाज होने के बावजूद अगर इतनी बड़ी तादाद में लोग इसके शिकार हो रहे हैं तो इसका क्या कारण हो सकता है। किसी भी बीमारी के इलाज के समांतर यह पहलू ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है कि खानपान से लेकर रहन-सहन में कमी या गड़बड़ी तक उसके तमाम कारणों को दूर करने या उससे बचने के ठोस उपाय किए जाएं।

सही है कि भारत में पहले के मुकाबले तपेदिक के मामलों में कमी आई है और लोग अपने स्तर पर भी इसके बचाव को लेकर जागरूक हो रहे हैं। मगर आज भी जितनी बड़ी तादाद में लोग इसके शिकार हो रहे हैं, उसे देखते हुए यह आशंका लाजिमी है कि भारत में 2025 तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य कैसे हासिल किया जा सकेगा!