देश के ग्रामीण इलाकों में लोगों की आजीविका की सुरक्षा के लिए जब मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम लागू किया गया था, तब उसका मकसद साफ था। शहर केंद्रित रोजगार के विकेंद्रीकरण के समांतर गांवों में रहने वाले लोगों को स्थानीय स्तर पर काम और उचित मेहनताना सुनिश्चित किया जाए, ताकि पलायन या विस्थापन जैसी व्यापक समस्याओं पर काबू पाया जा सके।
इस कानून के लागू होने के बाद व्यवहार में काफी हद तक बदलाव होता दिखा भी, जब महज सौ दिन के काम की गारंटी होने के बावजूद नौकरी के लिए शहरों का रुख करने वाले लोगों की तादाद में कमी दर्ज की गई। जाहिर है, अगर स्थानीय स्तर पर लोगों को आय का कोई जरिया मिले, रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाए, तो वे रोजगार के लिए शहरों को प्राथमिकता नहीं देंगे।
लेकिन इस कानून के तहत चलने वाली व्यवस्था को जहां मजबूत किया जाना चाहिए था, वहीं बाद के वर्षों में सरकारों ने इसे गैर-महत्त्व की किसी योजना की तरह देखना शुरू कर दिया। यह समझना मुश्किल है कि जिस व्यवस्था से एक बड़ी समस्या की सूरत में बदलाव की गुंजाइश बन सकती थी, उसे मजबूत करने के बजाय सरकारों ने उसके बजट में कटौती करना क्यों शुरू कर दिया!
आज हालत यह है कि ग्रामीण इलाकों में मनरेगा के तहत कराए जाने वाले काम के बदले मजदूरों को वक्त पर उनके मेहनताने का भुगतान भी नहीं मिल पा रहा है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसके तहत हुए काम की मजदूरी के तौर पर मजदूरों का चार हजार साठ करोड़ रुपए का बकाया अभी अटका हुआ है।
यह अफसोसनाक तस्वीर खुद ग्रामीण विकास मंत्रालय के कामकाज को लेकर ग्रामीण विकास और पंचायती राज से संबंधित स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में सामने आई है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक मंत्रालय की ओर से किए जाने वाले कार्यों से संबंधित नौ हजार करोड़ का भुगतान भी अभी अधर में लटका है। आए दिन एक मजबूत अर्थव्यवस्था के बूते विश्व में महाशक्ति के तौर पर देश के उभरने के दावे के बीच यह हालत निश्चित रूप से परेशान करने वाली है कि बहुत कम मेहनताने पर निर्भर लोगों और तबकों को भी उनकी मजदूरी नहीं मिल पा रही है।
पिछले महीने लोकसभा में यह सवाल उठा था कि मनरेगा के बजट में कटौती की गई है, जिसके कारण मजदूरों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें काम मिलने और समय पर मजदूरी के भुगतान की कानूनी गारंटी कमजोर पड़ रही है। ऐसे में सरकार को पर्याप्त आबंटन सुनिश्चित करना चाहिए। गौरतलब है कि मनरेगा का बजट 2020 की तुलना में पैंतीस फीसद तक कम हो चुका है।
दूसरी ओर, बीते दो-ढाई सालों के दौरान बेरोजगारी में लगातार बढ़ोतरी हुई है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि महामारी से बचाव के क्रम में बार-बार पूर्णबंदी के दौरान मनरेगा के तहत होने वाले कुछ काम ने करोड़ों गरीब परिवारों को बड़ी राहत दी थी। तथ्य यह है कि मनरेगा जैसे कार्यक्रम के जरिए अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले तबके देश के विकास में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। कायदे से काम करने लायक हर हाथ को पूरे साल काम की गारंटी होनी चाहिए, लेकिन मनरेगा के तहत तय गारंटी के बावजूद उन्हें या तो रोजगार नहीं मिल पाता या फिर मेहनताने का भुगतान नहीं होता। लेकिन अब अगर इसके तहत होने वाले काम की मजदूरी नहीं दी जा पा रही है, तो यह सरकार के लिए चिंता का प्राथमिक विषय होना चाहिए।