लोकतंत्र में असहमति और विरोध का अधिकार हर नागरिक को है। मगर इसे प्रकट करते समय स्वाभाविक रूप से मर्यादा पालन की भी अपेक्षा की जाती है। जबकि बहुत सारे लोग, और राजनीतिक दल भी, अपनी असहमति के अधिकार का तो इस्तेमाल करते हैं, पर मर्यादा भूल जाते हैं। इसके चलते अनेक नागरिक अधिकारों का हनन होते भी देखा जाता है।

शाहीनबाग के आंदोलन और उससे प्रेरित देश में अनेक जगहों पर हुए विरोध प्रदर्शनों में यही प्रवृत्ति देखी गई। नागरिकता कानून के विरोध में शुरू हुआ यह आंदोलन करीब सौ दिन तक चला था। उस दौरान शाहीनबाग और जामिया इलाके में सड़कों पर आवागमन पूरी तरह बंद रहा। जो लोग सामान्य दिनों में उन रास्तों से आया-जया करते थे, उन्हें आंदोलन की वजह से लंबी दूरी तय करते हुए दूसरे रास्तों से गुजरना पड़ता था।

कोरोना महामारी की वजह से केंद्र सरकार ने पूर्णबंदी घोषित की तब जाकर वह धरना-प्रदर्शन खत्म हो सका था, वरना शायद और लंबा खिंचता तथा लोगों को इसी तरह परेशानी उठानी पड़ती। उसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि कोई भी आंदोलन या विरोध-प्रदर्शन इस तरह नहीं चलाया जाना चाहिए कि उससे दूसरे लोगों को परेशानी उठानी पड़े। आंदोलन और सड़क रोकने के बीच संतुलन होना चाहिए।

हालांकि इस मामले में अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है, पर उसकी टिप्पणी ऐसे आंदोलनकारियों के लिए गंभीर नसीहत है। शाहीनबाग अकेला उदाहरण नहीं है, जिसमें सड़कें रोक कर अनावश्यक आम लोगों के लिए परेशानी पैदा की गई। अनेक मौकों पर राजनीतिक दल किसी मुद्दे पर बाजार बंद करने, राज्य और पूरे देश में बंदी का आह्वान कर देते हैं। उसमें उनके समर्थक लाठी-डंडे लेकर निकलते हैं और जबरदस्ती बाजार और दुकानें बंद करा देते हैं। सड़कों पर वाहनों को नहीं चलने दिया जाता। अगर कोई उनकी बात नहीं मानता तो उसकी दुकान, वाहन आदि में तोड़फोड़ की जाती है।

इस तरह जब भी कोई राजनीतिक दल या संगठन किसी आंदोलन, बंद, धरना-प्रदर्शन आदि का आह्वान करता है, तो आम नागरिकों में एक प्रकार का भय पैदा हो जाता है। ऐसे विरोध-प्रदर्शनों को किसी भी रूप में लोकतांत्रिक नहीं माना जा सकता, जिससे लोगों में भय पैदा हो या लोगों का रोजी-रोजगार प्रभावित हो, उन्हें आर्थिक नुकसान या अनावश्यक परेशानी उठानी पड़े।

इसी के मद्देनजर कोलकाता उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अगर किसी आंदोलन की वजह से सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचता या लोगों को नाहक परेशानी उठानी पड़ती है, तो उसकी भरपाई संबंधित संगठन को करनी पड़ेगी। मगर उससे शायद किसी दल या संगठन ने कोई सबक नहीं लिया।

सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर इस मर्यादा को रेखांकित किया है कि असहमति का अर्थ मनमानी कतई नहीं होता। हरियाणा में जाट आरक्षण को लेकर जिस तरह उग्र प्रदर्शन किया गया और उसमें जान-माल का भारी नुकसान हुआ, वह ज्यादा पुराना उदाहरण नहीं है। फिलहाल कृषि कानून को लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शन को भी देशव्यापी स्वरूप देने का प्रयास देखा जा रहा है। उसमें भी सड़कों को बंद करने, लोगों के रोजी-रोजगार को बाधित करने के प्रयास हो रहे हैं।

अदालत ने उस पर भी लोगों को मर्यादित रहने को कहा है। राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों को सोचने की जरूरत है कि आंदोलनों को किस तरह लोकतांत्रिक मर्यादा के तहत ही चलाया जाना चाहिए। विरोध प्रदर्शन या सरकार पर दबाव बनाने का यह तरीका बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि उससे आम नागरिकों को किसी तरह का नुकसान उठाना पड़े।