राजधानी दिल्ली में निजी स्कूलों में दाखिले को लेकर मचने वाली होड़ की खबरें बरसों से आती रही हैं। हर साल दिखने वाले इस नजारे से ऐसा लगता है जैसे स्कूलों की जबर्दस्त कमी हो। पर असल बात यह है कि सारी मारामारी कुछ बहुत प्रतिष्ठित माने जाने वाले स्कूलों में प्रवेश को लेकर होती है।

वहां पढ़ाई-लिखाई का स्तर अन्य स्कूलों से ऊपर हो या नहीं, पर उनमें नाम दर्ज होना शायद बच्चे से अधिक उसके माता-पिता के लिए अधिक मायने रखता है, यह समाज में अपनी हैसियत बताने का जरिया बनता है। इसके लिए जान-पहचान के प्रभावी व्यक्तियों के जरिए जुगत भिड़ाने से लेकर डोनेशन तक, अनेक तरकीबें आजमाई जाती हैं।

दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा के खुलासे से यही जाहिर होता है कि किसी नामी-गिरामी स्कूल की चाहत इस हद तक भी जा सकती है कि अभिभावक उचित-अनुचित का विवेक तो क्या, अपराध के अपराध होने का बोध भी खो बैठें। गौरतलब है कि दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे गिरोह का भंडाफोड़ किया है जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षित सीटों पर फर्जी कागजात के जरिए सामान्य श्रेणी के बच्चों को प्रवेश दिलाता था।

इस सिलसिले में चार व्यक्ति गिरफ्तार किए गए हैं, कुछ और पकड़े जा सकते हैं। पूछताछ और अब तक की जांच से इस तरह के कोई ढाई सौ दाखिलों का पता चला है; इस संख्या में और इजाफा हो सकता है। शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 में निजी स्कूलों के लिए यह अनिवार्य बनाया गया है कि वे गरीब परिवारों के बच्चों के लिए पच्चीस फीसद स्थान आरक्षित रखें।

फर्जीवाड़े की तरकीब यह थी कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के होने के जाली आय प्रमाणपत्र, जाली मतदाता पहचानपत्र आदि दस्तावेज दूसरे नामों से जमा करा कर दाखिले ले लिए जाते थे और बाद में उन्हें सामान्य कोटे में बदल दिया जाता था, फिर प्रवेशार्थियों के नाम भी बदल कर ठीक कर लिए जाते थे। इस तरह दिलाए गए एक दाखिले की कीमत तीन लाख से दस लाख रुपए वसूली जाती थी। इस गोरखधंधे को जिन युवकों ने अंजाम दिया उनमें से कई ट्यूशन पढ़ाते थे। हो सकता है कुछ खास स्कूलों के लिए अभिभावकों की प्रचंड ललक को देख कर उन्हें इसका दोहन करने का खयाल आया हो। पर अकेले वही गुनहगार नहीं हैं।

गलत तरीके से प्रवेश दिलाने के लिए जिस तरह के कागजात स्कूलों में जमा कराए गए, वे संबंधित अभिभावकों की सहमति और शिरकत के बिना नहीं कराए जा सकते थे। अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये सभी शिक्षित और संभ्रांत परिवार रहे होंगे। उन्हें यह क्यों नहीं लगा कि वे कुछ ऐसा कर रहे हैं जो न केवल नैतिक रूप से बल्कि कानूनी रूप से भी गलत है? क्या ‘स्टेटस सिंबल’ समझे जाने वाले स्कूलों की माया ने दाखिले के मामले में लोगों की सोचने-समझने की शक्ति कुंद कर दी है?

फर्जी दाखिले में जिन स्कूलों के नाम आए हैं वे इस सब में अपना कोई हाथ होने से साफ इनकार कर रहे हैं। लेकिन क्या यह संभव है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के कोटे में हुए दाखिले को सामान्य कोटे में स्कूल की मिलीभगत के बगैर कर दिया जाए? पर एक बुनियादी सवाल शिक्षा प्रणाली से जुड़ा है और समाज से भी, वह यह कि दोहरी या असमान शिक्षा प्रणाली हमें कहां ले आई है!\

 

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