दिल्ली के निजी स्कूलों में दाखिले के वक्त अभिभावकों में अजीब असमंजस और बेचैनी का माहौल रहता है। इसकी वजह स्कूलों में दाखिले का एकरूप मानक न होना है। हालांकि इसके लिए दिल्ली शिक्षा निदेशालय ने नियम-कायदे बना रखे हैं, पर हर स्कूल ने अलग से अपने पैमाने और कोटे बना रखे हैं। इस मनमानी पर अंकुश लगाने के मकसद से दिल्ली सरकार ने कमजोर आयवर्ग के लिए आरक्षित सीटों को छोड़ कर सभी प्रकार के कोटे समाप्त कर दिए हैं। इससे निस्संदेह अभिभावकों को कुछ राहत मिलेगी। मगर जिस तरह स्कूल मालिक लामबंद होने शुरू हो गए हैं, उससे यही लगता है कि दिल्ली सरकार के फैसले को तत्काल लागू कर पाना कठिन होगा। इस मसले पर चूंकि दिल्ली उच्च न्यायालय में मुकदमा चल रहा है और इस महीने के अंत तक उस पर कोई फैसला आने की उम्मीद है, स्कूल मालिकों का तर्क है कि जब मामला अदालत के समक्ष है तो सरकार उस पर कोई फैसला कैसे कर सकती है। यह पहली बार नहीं है जब स्कूलों ने सरकार के किसी फैसले के खिलाफ इस तरह लामबंद होना शुरू कर दिया है। पहले भी जब-जब फीस बढ़ोतरी या दाखिले में मनमानी को लेकर स्कूलों पर अंकुश लगाने की कोशिश की गई, उनके मालिकों ने अदालत में चुनौती देकर उसमें रोड़ा अटकाने की कोशिश की। दरअसल, निजी स्कूलों के प्रबंधक इस कदर ताकतवर हो चुके हैं कि अभी तक कोई सरकार उनके खिलाफ कड़ा कदम उठाने से हिचकती रही है। इस मामले में अरविंद केजरीवाल सरकार ने निस्संदेह साहसिक कदम उठाया है।
निजी स्कूलों के बढ़ते संजाल की सबसे बड़ी वजह सरकारी स्कूलों की बिगड़ती दशा है। सरकार ने इन्हें इसलिए बढ़ावा दिया कि वे सरकार पर शिक्षा का बढ़ता बोझ कुछ कम कर सकेंगे। मगर हकीकत यह है कि पढ़ाई-लिखाई का बेहतर माहौल देने के नाम पर निजी स्कूल कारोबार का रूप लेते गए हैं। अब वे केवल पढ़ाई-लिखाई नहीं, खेलकूद, व्यक्तित्व विकास आदि जैसे बेहतर पाठ्येतर कार्यक्रमों के हवाले भी लोगों को आकर्षित करते और अपनी मर्जी से फीस वसूलते हैं। जो स्कूल बेहतर माने जाते हैं, उन्होंने अलग-अलग कोटे तय कर रखे हैं। करीब बासठ प्रकार के पैमाने बने हुए हैं। इस तरह सामान्य दाखिले की सीटें काफी कम बचती हैं। मैनेजमेंट कोटे के नाम पर खुलेआम मनमाना पैसा वसूला जाता है। दिल्ली सरकार ने इन मनमानियों पर रोक लगाने की कोशिश तो की है, पर दाखिले का पैमाना क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं है। इसके चलते भी लोगों में भ्रम बना हुआ है। काफी पहले से सुझाव दिया जाता रहा है कि दाखिले के समय बच्चों और अभिभावकों का साक्षात्कार या दूसरे प्रकार के पैमाने तय करने के बजाय लाटरी से नाम निकालने की व्यवस्था होनी चाहिए। इस तरह किसी प्रकार के भेदभाव की गुंजाइश नहीं रहेगी। कुछ स्कूल यह प्रणाली अपनाते भी रहे हैं। मगर ज्यादातर स्कूलों की दलील रही है कि अगर वे दाखिले में कोई पैमाना नहीं रखेंगे तो उन्हें बेहतर और कमजोर बच्चों में फर्क करना मुश्किल होगा। इस तरह उनके परीक्षा नतीजों पर असर पड़ेगा। मगर बच्चों के बीच ऐसे भेदभाव को बढ़ावा देने की कोई नीति क्यों होनी चाहिए। शिक्षा नीति का मूल मकसद है समावेशी शिक्षा, मगर निजी स्कूलों के भेदभावपूर्ण रवैए के चलते वह हाशिये पर चला गया है। दिल्ली सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि निजी स्कूल उसके फैसले का कड़ाई से पालन करें।