यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि बच्चों का अपहरण और उनकी तस्करी गंभीर समस्या बन चुकी है। ऐसे में किसी बच्चे के अपहरण के एक मामले में समझौते के आधार पर आरोपी को राहत देने जैसी कोई कानूनी व्यवस्था सामने आती है, तो एक गलत नजीर बनेगी। यही वजह है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई करते हुए बिल्कुल स्पष्ट रुख अख्तियार किया और अपहरणकर्ता और बच्चे के माता-पिता के बीच हुए समझौते के आधार पर प्राथमिकी को रद्द करने से इनकार कर दिया।

बच्ची और उसके दो साल के भाई को पड़ोसी ने अपहरण कर बीस हजार में बेचा था

अदालत ने साफ कहा कि समझौतों के आधार पर अगर प्राथमिकी रद्द कर दी जाती है तो यह कानून के शासन को कमजोर करने जैसा होगा। गौरतलब है कि संबंधित मामले में एक बच्ची और उसके दो साल के भाई को उनके पड़ोसी ने अपहरण करने के बाद एक दंपति को बीस हजार रुपए में बेच दिया था। फिर अपहृत लड़के के लगातार रोते रहने की वजह से उसे उसके घर वापस छोड़ दिया गया था। बाद में बच्ची को भी ढूंढ़ लिया गया। इसमें बच्ची को खरीदने वाले दंपति ने इस आधार पर प्राथमिकी रद्द करने का अनुरोध किया था कि उन्हें इस तथ्य की जानकारी नहीं थी कि बच्ची का अपहरण किया गया था।

आरोपी दंपति ने अदालत से मानवीय आधार पर राहत की लगाई थी गुहार

दरअसल, इस मामले में एक पहलू यह है कि आरोपी दंपति की चिकित्सा संबंधी कोई समस्या थी और वे संतान पैदा कर पाने की स्थिति में नहीं थे। इसी आधार पर उन्होंने अदालत से अपने लिए मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की गुहार लगाई। मगर गोद लेने की कानूनी प्रक्रिया के तहत उन्होंने बच्चा हासिल किया होता, तो उनके सामने इस अपराध में एक पक्ष बनने की नौबत न आती। बाद में भले उनका बच्चों के माता-पिता के साथ कोई समझौता हो गया हो, मगर अपहरण और बेचे जाने के जरिए बच्चा पाने का यह तरीका एक गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है। बच्चों का अपहरण, शोषण और उनकी तस्करी आज एक संगठित अपराध के तौर पर भी विकसित हो चुका है। आए दिन कहीं न कहीं से बच्चों के लापता होने या अगवा किए जाने की खबरें आती रहती हैं।

अदालत ने कहा- शिकार बच्चों को बेहद दुखद हालात से गुजरना पड़ता है

दिल्ली हाई कोर्ट ने भी इस मसले पर अपना सरोकार जाहिर किया कि बच्चों के अपहरण और तस्करी गंभीर अपराध हैं, जिनका बड़े पैमाने पर समाज के साथ-साथ बच्चों के स्वास्थ्य, अस्तित्व और विकास पर गंभीर असर पड़ता है। संबंधित मामले में एक अफसोसनाक पहलू यह भी था कि बच्चों के माता-पिता चाहते थे कि वे अपहरण के आरोपियों के साथ रहें। संभव है कि बाद की परिस्थितियों में दोनों पक्षों के बीच सुलह हो गई हो, मगर तकनीकी रूप से यह मामला बच्चों के अपहरण और तस्करी का ही था और इसके शिकार बच्चों को बेहद त्रासद जीवन से गुजरना पड़ता है।

इसीलिए अदालत ने कहा कि अगर ऐसे मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाता है, तो यह आपराधिक कानून के सिद्धांतों को पराजित करने और इस प्रक्रिया में कानून के शासन को कमजोर करने जैसा होगा। भारत में बच्चे ही अपहरण का सबसे अधिक शिकार हैं। इनमें भी ज्यादा संख्या लड़कियों की होती है।

अगवा बच्चों को आमतौर पर बाल मजदूरी या देह व्यापार में झोंक दिया जाता है। ऐसे में इस समस्या पर काबू पाने के लिए कानून के मोर्चे पर सख्ती एक जरूरी कदम हो जाता है। निश्चय ही अदालत का यह कदम बाल अधिकारों, उनकी तस्करी आदि से जुड़े मामलों की सुनवाई में एक नजीर बनेगा।