इस बार दिल्ली विधानसभा चुनावों में राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए जैसे हथकंडे अपना रही हैं, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया। खासकर भाजपा कुछ अधिक आक्रामक रुख अपनाए हुए है। इसलिए जैसे ही उसे पता चला कि ऐसी चार कंपनियों ने आम आदमी पार्टी को चंदे के रूप में दो करोड़ रुपए दिए, जिनके ब्योरे संदिग्ध हैं, उसने बगैर किसी पुख्ता छानबीन के इसे मुद्दा बना लिया। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने चुनावी रैलियों में कहा कि यह काले धन को सफेद करने का मामला है। मगर आम आदमी पार्टी का दावा है कि अगर सरकार को उसे मिले चंदों पर संदेह है तो वह उसकी छानबीन कराए, दोषियों को सजा दिलाए। मगर वित्तमंत्री ने इस पर कुछ नहीं कहा है। दरअसल, आम आदमी पार्टी ने अपने सभी चंदों का ब्योरा पार्टी की वेबसाइट पर जारी किया है। जिन चार कंपनियों से मिले चंदे की बात उठाई गई है, उसके बारे में भी जानकारी वहां उपलब्ध है। अगर केंद्र सरकार को इस ब्योरे पर संदेह है तो उन कंपनियों के बैंक खातों की जांच कराने में कितनी देर लगती है! जो कंपनियां इतनी बड़ी रकम चंदे के रूप में देती हैं, उन्हें अपना पैन नंबर भी बताना पड़ता है। इसलिए वित्तमंत्री के लिए इसका पता लगाना मुश्किल काम नहीं माना जा सकता। मगर हैरानी की बात है कि अभी तक इस बारे में सरकार की तरफ से कोई खुलासा नहीं किया जा सका है। इससे यही जाहिर होता है कि आप पार्टी के चंदे का मुद्दा भाजपा चुनावी शिगूफे की तरह उछाल कर लाभ उठाना चाहती है। जो हो, इस प्रकरण से राजनीतिक चंदे और चुनाव खर्च में पारदर्शिता लाने के व्यावहारिक उपाय तलाशने की जरूरत एक बार फिर रेखांकित हुई है।

दिल्ली की सड़कों, गलियों, मुहल्लों, अखबार, टीवी, रेडियो, इंटरनेट आदि पर नजर डालें तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस पार्टी का चुनाव खर्च तय सीमा के भीतर है और किसका उसके बाहर। क्या सभी राजनीतिक दल इसके सही-सही ब्योरे उपलब्ध कराने की स्थिति में हैं? क्या खुद भाजपा और अन्य दल अपने चंदे और खर्च के हिसाब-किताब में पारदर्शिता बरतते हैं? यों चंदा लेने और प्रत्याशियों के चुनाव खर्च से संबंधित स्पष्ट नियम-कायदे हैं, मगर पार्टियों और उनके समर्थकों के खर्च पर कोई अंकुश नहीं है। इसी का फायदा उठाते हुए चुनावों में आडंबरपूर्ण प्रचार-प्रसार किए जाते हैं।

निर्वाचन आयोग भी इस पर अंकुश नहीं लगा पाता। निर्वाचन आयुक्त एचएस ब्रह्मा ने स्वीकार किया है कि राजनीतिक दलों के चंदे पर अंकुश लगाना आयोग के वश की बात नहीं। खुद वित्त मंत्रालय की एक आंतरिक रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतिक दल अस्सी प्रतिशत चंदे नकद लेते हैं। उनमें भाजपा का आंकड़ा भी मौजूद है, जिसका सतहत्तर प्रतिशत चंदा नकद आता है। यह रिपोर्ट वित्तमंत्री अरुण जेटली को ही सौंपी गई है। दिल्ली में चुनाव मैदान में उतरी पार्टियों में एकमात्र आम आदमी पार्टी ने अपने चंदे और खर्च का हिसाब-किताब इंटरनेट पर सार्वजनिक किया है। अगर उस पर काले धन को सफेद करने का आरोप है, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि दूसरे दल जो ज्यादातर नकद चंदा लेते हैं, वे इस आरोप से खुद को कैसे बचा सकते हैं। चुनावों में काले धन के प्रवाह को लेकर वित्तमंत्री को चिंता होनी ही चाहिए, मगर यह सिर्फ चुनावी फायदा उठाने के मकसद से नहीं, इस पर रोक लगाने के उपायों के मद्देनजर हो तो उससे बेहतर नतीजों की उम्मीद बनती है। क्या प्रधानमंत्री इस मामले में पारदर्शिता लाने के लिए सभी राजनीतिक दलों को तैयार करने की कोशिश करेंगे!

 

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