दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार आए दिन यहां के सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था को बेहतरीन और आदर्श उदाहरण बताती रहती है। इस बात का हवाला दिया जाता है कि हाल के वर्षों में दिल्ली के सरकारी स्कूलों की तस्वीर बदल गई है और देश-विदेश में इसे दर्ज किया जा रहा है। अगर ऐसा सचमुच हो तो यह किसी के लिए भी खुश होने वाली बात हो सकती है।

खासतौर पर देश भर में सरकारी स्कूलों की बदहाली की जैसी स्थितियां बनी हुई हैं, उसमें यह उत्साह जगाने वाली बात है। लेकिन अगर इस तरह के प्रचार के अनुपात में वास्तविक प्रगति और शैक्षिक गुणवत्ता का सवाल कसौटी पर हो तो यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर सरकार स्कूली शिक्षा की तस्वीर को बदल डालने के मामले में किस तरह की उपलब्धियों का दावा करती है!

यों दिल्ली के कई स्कूलों में अव्यवस्था या लापरवाही की खबरें अक्सर आती रहती हैं। लेकिन स्कूल परिसर में अब कई बार छात्रों के बीच आपराधिक हरकतों और कुछ शिक्षकों की गैरजिम्मेदारी के जैसे मामले सामने आ रहे हैं, उससे लगता है कि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था के बारे में सरकारी प्रचार और दावे अभी हकीकत से दूर हैं।

दरअसल, मंगलवार को दिल्ली के दो सरकारी स्कूलों के बारे में आई खबर यह सोचने पर मजबूर करती है कि ये परिसर व्यवस्थागत स्तर पर विद्यार्थियों के लिए कितने सुरक्षित हैं और शिक्षक अपने दायित्वों को लेकर कितने सजग हैं! गौरतलब है कि दिल्ली के एक स्कूल के दो छात्रों ने पुलिस को दी गई अलग-अलग शिकायत में कहा कि उनके पांच-छह सहपाठियों ने स्कूल के ग्रीष्मकालीन शिविर में उनका यौन उत्पीड़न किया था।

अफसोसनाक यह भी है कि पीड़ित छात्रों ने इसकी जानकारी शिक्षकों और उपप्रधानाचार्य को दी। लेकिन किसी शिक्षक ने इसकी सूचना पुलिस या अन्य उच्च अधिकारी को नहीं दी। अब दिल्ली की मौजूदा शिक्षा मंत्री का कहना है कि यह स्थिति न सिर्फ अनैतिक है, बल्कि गैरकानूनी भी है।

दरअसल, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम यानी पाक्सो के तहत यह प्रावधान है कि अगर किसी वयस्क को बच्चे के यौन उत्पीड़न के बारे में पता हो और वह संबंधित प्राधिकार को इसकी सूचना न दे तो यह गैरकानूनी है। क्या उस स्कूल के शिक्षकों और उपप्रधानाचार्य को अपने इस दायित्व की जानकारी नहीं थी या फिर उन्होंने इस मामले की अनदेखी की? अब उन्हें निलंबित किया गया है, लेकिन क्या इतने भर से इस समस्या की व्यापकता और गंभीरता का हल निकाल लिया जाएगा?

असली चुनौती शैक्षिक माहौल को बेहतर करने और उसकी गुणवत्ता में सुधार करने के साथ-साथ शिक्षकों और विद्यार्थियों के सोचने-समझने के तौर-तरीके में बदलाव लाने की है। लेकिन संसाधनों के स्तर पर कुछ स्कूलों को चमकाने से वैचारिक और व्यवहारगत जड़ता को दूर नहीं किया जा सकता। इसका एक उदाहरण यह भी सामने आया कि दिल्ली के ही एक स्कूल में एक शिक्षिका पर यह आरोप लगा कि उसने अल्पसंख्यक समुदाय के चार छात्रों पर धार्मिक लिहाज से अपमानजनक और सांप्रदायिक टिप्पणी की।

इस मामले में भी प्राथमिकी दर्ज की गई। सवाल है कि विदेश भेज कर शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण दिलाने के दावे के समांतर कुछ शिक्षकों के भीतर गहरे पैठी ऐसी संकीर्णता और कुंठाओं को दूर करने के लिए दिल्ली सरकार क्या योजना चलाती है! स्कूलों में बच्चों के किसी अपराध का शिकार होने की स्थिति में या उनकी सामाजिक पहचान को निशाना बनाने के मामले में अगर कुछ शिक्षकों का भी ऐसा रवैया सामने आता है तो यहां की शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी सुधार करने और इसके आदर्श होने का ढिंढोरा पीटने का क्या अर्थ रह जाता है?