पिछले दिनों कूनो राष्ट्रीय उद्यान में जब लगातार कई चीतों की मौत की खबर आई, तो स्वाभाविक ही पर्यावरणविदों और वन्यजीव संरक्षण से जुड़े लोगों के लिए यह चिंता का विषय बन गया। एक आशंका यह जताई गई कि उन्हें जो रेडियो कालर लगाया गया है, उसकी वजह से उनके भीतर संक्रमण हुआ और यह उनकी मौत का कारण बना। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक, रेडियो कालर के डिजाइन की वजह से चीतों को घाव हो गया हो सकता है, जिसे समय रहते ठीक नहीं किया जा सका।
कई बार संक्रमण के जटिल स्थिति में पहुंच जाने के बाद उसे संभालना मुश्किल हो जाता है। हालांकि अभी यह अध्ययन का विषय है कि संक्रमण का मुख्य कारण रेडियो कालर ही है, फिर भी इससे जुड़ी आशंकाओं की वजह से छह चीतों में से रेडियो कालर को स्वास्थ्य परीक्षण के मकसद से फिलहाल निकाल दिया गया है।
लेकिन पर्यावरण मंत्रालय ने चीतों की मौत में इसे एक वजह बताने को अवैज्ञानिक भी बताया है। गौरतलब है कि आमतौर पर वन्यजीवों पर नजर रखने के लिए उन्हें रेडियो कालर लगाए जाते हैं। कई बार या तो पशु का शरीर किसी बाहरी यंत्र के साथ संतुलन नहीं बिठा पाता या फिर उसकी बनावट के चलते कटने से घाव बन जाता है। ऐसी स्थिति में अगर समय पर उसे इलाज नहीं मिल पाता तो उसका जीवन संकट में पड़ सकता है।
कई वन्यजीवों के शरीर की बनावट बेहद संवेदनशील होती है और आबोहवा बदलने का उस पर असर पड़ सकता है। किसी पशु पर नजर रखने के लिए कोई यंत्र उसके शरीर की संरचना के अनुकूल या प्रतिकूल भी साबित हो सकता है। दरअसल, सुचिंतित तरीके से किसी यंत्र को ऐसे प्रयोग से पहले परीक्षणों के कई स्तर से गुजारा जाता है, ताकि वह किसी वन्यजीव के लिए नुकसानदेह साबित न हो।
लेकिन यह कहना कई बार मुश्किल हो जाता है कि इस तरह के यंत्र किस पशु के लिए कितना अनुकूल साबित होंगे। ऐसे मामले भी अक्सर सामने आते रहे हैं जिनमें चीता या बाघ जैसे संरक्षित पशु प्राकृतिक कारणों की वजह से भी बीमार हो जाते हैं और समय पर इलाज न मिल पाने की वजह से उनकी मौत हो जाती है। कूनो राष्ट्रीय उद्यान में लाए गए चीते निश्चित रूप से देश में पारिस्थितिकी संतुलन की दिशा में एक ठोस पहल है, लेकिन इसके साथ-साथ चीतों के संरक्षण के लिए भी जरूरी इंतजाम करना सरकार का दायित्व होना चाहिए।
प्रकृति की अपनी गति होती है और समय-समय पर भिन्न कारणों से होने वाले उतार-चढ़ावों का असर सभी जीवों पर पड़ता रहा है। खासतौर पर वन्यजीवों के मामले में कई बार स्थितियां ज्यादा संवेदनशील होती हैं। कुछ पशु-पक्षी अनुकूल पर्यावरण में ही सुरक्षित रहते हैं। दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से लाए गए बीस चीतों में कुछ के लिए शायद यहां के वातावरण से तालमेल बिठा पाना मुश्किल रहा और इसीलिए उनके जीवन और स्वास्थ्य के सामने कई तरह की जटिलताएं खड़ी हो रही हैं।
हालांकि सरकार और संबंधित महकमे इसके कारणों की खोज और उन्हें बचाने के लिए जरूरी उपाय करने में लगे हैं , लेकिन देखते-देखते बीस में से आठ चीतों की मौत के बाद यह सवाल खड़ा हुआ है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। सरकार ने बाघों की तरह चीतों के संरक्षण के लिए भी चीता परियोजना का समर्थन करने के लिए कई कदम उठाने की बात की है, जिसमें बचाव, पुनर्वास, क्षमता निर्माण आदि की सुविधा के साथ चीता अनुसंधान केंद्र की स्थापना भी शामिल है। मगर यह देखने की बात होगी कि आने वाले वक्त में ऐसी कवायदों से जमीनी स्तर पर कैसे नतीजे सामने आते हैं!