राजनीति में प्रतिद्वंद्वी दलों पर तीखे प्रहार आम बात हैं, पर इनमें कोई मर्यादा की हदें पार कर जाए तो विवाद स्वाभाविक है। यही हुआ उत्तर प्रदेश में, जब प्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने बसपा प्रमुख मायावती को लेकर व्यक्तिगत तौर पर ओछी टिप्पणियां कर डालीं। प्रदेश में बसपा कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए और विरोध प्रदर्शन किया। संसद में सभी विपक्षी दलों ने सामूहिक रूप से दयाशंकर सिंह के बयान की भर्त्सना की। अच्छी बात है कि इस मामले को भाजपा ने गंभीरता से लिया और दयाशंकर सिंह को सभी तरह की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया। शायद इससे पार्टी के दूसरे नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ सबक मिले। हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब किसी वरिष्ठ नेता ने अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टी के किसी नेता पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाए और अशोभन शब्दों का इस्तेमाल किया। जब भी ऐसी कोई घटना होती है, जनप्रतिनिधियों और सार्वजनिक जीवन जीने वाले लोगों के आचरण पर अंगुलियां उठती हैं और अपेक्षा की जाती है कि राजनीतिक दल अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं को अनुशासित और मर्यादित व्यवहार का पाठ पढ़ाएं।

मगर लगता है, राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण होता जा रहा है। खीझ में या फिर दूसरे नेता को नीचा दिखाने के मकसद से असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल करना आम होता गया है। राजनीति में दूसरे दलों की कमियां और कमजोरियां गिनाना गलत नहीं है, पर इसका यह अर्थ कतई नहीं लगाया जा सकता कि उसमें भाषा की मर्यादा भुला दी जाए। ऐसा नहीं माना जा सकता कि दयाशंकर सिंह ने मायावती के बारे में बोलते हुए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया, उनके अर्थ उन्हें पता नहीं थे या फिर उन्हें इसका ध्यान नहीं रहा कि उन शब्दों से मायावती और उनके नेताओं-कार्यकर्ताओं पर क्या असर पड़ेगा।

राजनीति में नेता का आचरण मायने रखता है। वह सिर्फ तालियां बटोरने या फिर अपने समर्थकों को भड़काने के मकसद से दूसरे दलों के नेताओं के बारे में अमर्यादित बयान देता है तो न सिर्फ उसकी, बल्कि पूरी पार्टी की छवि खराब होती है। दयाशंकर सिंह के ओछे बयान से पूरी भाजपा को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। फिर यह भी उचित नहीं कहा जा सकता कि जिस नेता के बारे में कुछ अशोभन कहा गया हो, वह भी वैसे ही तीखे और अशोभन शब्दों के जरिए पलटवार करे।

दयाशंकर सिंह की टिप्पणी के विरोध में जिस तरह बसपा कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन के दौरान मर्यादा की हदें पार कीं और खुद मायावती ने संसद के पटल पर गाली देने के अंदाज में बयान दिए, उसे न तो लोकतांत्रिक तरीका कहा जा सकता है और न किसी नेता का बड़प्पन। रोष प्रकट करने के लिए जरूरी नहीं कि अशोभन शब्दों का इस्तेमाल किया जाए। जब भी किसी दल का कोई नेता असंसदीय शब्दों का प्रयोग करता है तो दूसरे दलों के लोग मर्यादा की दुहाई देते नहीं थकते, पर जब अपनी बारी आती है तो वे शायद यह तकाजा भूल जाते हैं। कांग्रेस पर वार करते हुए भाजपा के नेता और भाजपा पर वार करते हुए आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता कई बार भाषिक मर्यादा का उल्लंघन कर चुके हैं। मायावती खुद अपने प्रतिद्वंद्वी दलों के नेताओं पर वार करते हुए कई बार तल्खी में शब्दों का वजन करना भूल जाती हैं। जनप्रतिनिधि भी अगर अराजक ढंग से व्यवहार करने और बोलने लग जाएंगे, तो फिर लोकतांत्रिक मूल्यों की जिम्मेदारी किस पर होगी!