दक्षिण भारत के कई नेता अक्सर ऐसे बयान देते देखे जाते हैं, जिनमें हिंदी भाषियों या उत्तर भारत के लोगों के प्रति अपमान या उपहास का भाव होता है। मामले के तूल पकड़ने के बाद सफाई के तौर पर ‘अलग आशय होने’ जैसे बहाने की आड़ ले ली जाती है, मगर कुछ दिनों बाद फिर उसी तरह के बयान यही दर्शाते हैं कि भारत के ही एक हिस्से के लोगों के प्रति दक्षिण भारत के कुछ नेताओं के भीतर एक विचित्र कुंठा और दुराग्रह मौजूद है।
ताजा मामला तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम सांसद दयानिधि मारन के बयान का है, जिसमें उन्होंने इतना भी खयाल रखना जरूरी नहीं समझा कि जिन लोगों के बारे में वे अपने आग्रह दर्शा रहे हैं, वे शौक से नहीं, बल्कि मजबूरी में अपने परिवार का जीवन चलाने के लिए अन्य राज्यों में जाते हैं। सुर्खियों में आए वीडियो में दयानिधि मारन ने कहा कि अंग्रेजी जानने वाले लोग सूचना तकनीक कंपनियों में मोटी तनख्वाह पाते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश या बिहार से तमिलनाडु आने वाले हिंदीभाषी लोग या तो निर्माण कार्य करते हैं या फिर सड़क या शौचालय साफ करने जैसी छोटी-मोटी नौकरियां करते हैं।
जाहिर है, उनके इस बयान के बाद एक बड़े तबके में भारी नाराजगी पैदा हुई, जो देश के भीतर भाषा, क्षेत्र और समुदाय के आधार पर विभाजन पैदा करने की कोशिशों का विरोध करते हैं। हालांकि इस मसले पर उठे विवाद के बाद द्रमुक ने इसे दयानिधि का पुराना बयान बताया, मगर सवाल है कि क्या किसी भी तर्क पर हिंदी भाषा और प्रवासी मजदूरों पर इस तरह की अपमानजनक और एक बड़े तबके की मेहनत को खारिज करने वाले बयान को उचित ठहराया जा सकता है?
हिंदीभाषियों को लेकर ऐसे नेताओं का पूर्वाग्रह क्या देश की एकता की भावना को चोट नहीं पहुंचाता है? क्या वजह है कि अक्सर दक्षिण भारत और खासकर तमिलनाडु के नेता उत्तर भारत और हिंदीभाषी लोगों के बारे में ऐसे अपमानजनक बयान देते रहते हैं? संभव है कि यह उन्हें अपनी स्थानीय राजनीति को बचाने का जरिया लगता हो, लेकिन एक बड़े तबके के प्रति उपेक्षा या उपहास का भाव दर्शा कर वे अपनी विचारधारा और राजनीति की किस सीमा को जाहिर करते हैं!
विडंबना है कि दयानिधि मारन जिन तबकों को कमतर बता रहे थे, राज्य में उनकी पार्टी उनके हित में ही सामाजिक न्याय का दावा करती है। बिहार और उत्तर प्रदेश से अगर कुछ लोग तमिलनाडु जाकर अपनी जीविका चलाने के लिए मेहनत-मजदूरी करते हैं, तो उन्हें किस तर्क और विचार के आधार पर कमतर माना जाना चाहिए?
दुनिया के किस दर्शन में मेहनतकश लोगों का इस आधार पर उपहास उड़ाया जाता है? सूचना तकनीक के क्षेत्र में रोजगार की अपनी अहमियत है, लेकिन किसी भी देश या राज्य के विकास में इमारतों से लेकर सड़कों के निर्माण या साफ-सफाई के काम की कम भूमिका नहीं। क्या इसके बिना कोई भी राज्य या देश खुद को विकास की कसौटी पर पूर्ण बता सकता है?
मेहनत-मजदूरी के काम को इस तरह हेय बता कर क्या श्रम के आधार पर व्यक्ति और समुदाय की पहचान का श्रेणीकरण नहीं किया जाता है? किसी भी भाषा, काम या पेशे को सम्मान देने से उस पहचान से जुड़े लोगों के दायरे का विस्तार होता है। फिर इस देश में हिंदी की जो जगह रही है, उसमें इसके प्रति नाहक दुराग्रह पालने वाले लोग क्या हासिल कर लेंगे?