देश में हाशिये के तबकों के परिवारों की बच्चियों के स्कूलों तक पहुंच सकने के कितने स्तर रहे हैं, उनकी राहों में क्या बाधाएं रही हैं, यह जगजाहिर है। आजादी के बाद से समय-समय पर सरकारों ने लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर कई तरह की योजनाएं लागू कीं, नीतिगत फैसले किए। लेकिन आज भी कई ऐसे पहलू छूटे हुए हैं, जिनकी वजहों पर गौर करना बहुत जरूरी नहीं समझा गया और जिनके चलते बड़ी तादाद में स्कूली छात्राएं बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं।
ये वजहें स्कूली पढ़ाई-लिखाई में गुणवत्ता के सवालों से इतर कुछ ऐसी स्थितियों से जुड़ी हो सकती हैं, जिन्हें निजी समस्याओं के तौर पर देखा जाता है, मगर वे स्कूली लड़कियों के जीवन और स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। मसलन, स्कूलों में लड़कियों के लिए साफ-सुथरे शौचालय से लेकर माहवारी जैसे कुछ बिंदु उनके लिए विशेष इंतजाम की जरूरत को रेखांकित करते हैं। इस लिहाज से देखें तो सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की ओर से राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को यह नोटिस जारी करना बेहद अहम है, जिसके तहत माहवारी स्वच्छता को लेकर एक स्पष्ट नीति बनाने का निर्देश दिया गया है।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में मांग की गई है कि स्कूलों में छठी से बारहवीं की लड़कियों को मुफ्त सैनिटरी पैड दिया जाए और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था की जाए। अनेक अध्ययनों में यह रेखांकित किया गया है कि स्वच्छता सुविधाओं तक पहुंच की कमी और माहवारी से जुड़े सामाजिक व्यवहार के कारण बहुत सारी लड़कियां स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं।
शिक्षा की सूरत बदलने को लेकर सरकारें समय-समय पर अनेक नीतिगत फैसले लेती रही हैं और नए कार्यक्रमों की घोषणा करती रही हैं। लेकिन गुणवत्ता आधारित शिक्षा के सवाल के अलावा एक अहम पहलू यह है कि अगर इसमें लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई निर्बाध जारी रहने के लिए जरूरी कारकों पर गौर करने के साथ इसमें मौजूदा कमियों को दूर नहीं किया जाता है तो कोई बेहद अहम पहलकदमी भी आधे-अधूरे नतीजे देगी। यह सभी जानते हैं कि किशोरावस्था में लड़कियों को सेहत से जुड़ी किन जटिलताओं का सामना करना पड़ता है और उसके क्या कारण रहे हैं।
सच यह है कि आबादी के एक बड़े तबके के बीच सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से पार निकल कर किसी तरह स्कूल पहुंची लड़कियां माहवारी से उपजी दिक्कत, पीने के साफ पानी और शौचालय जैसी बुनियादी जरूरतों के अभाव से दो-चार होती हैं। माहवारी में स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए जरूरी प्रशिक्षण और संसाधनों के अभाव के चलते वे अपेक्षित सावधानी नहीं बरत पातीं।
इसी तरह, स्कूलों में अलग शौचालय का अभाव उनके लिए एक बड़ी समस्या होती है। इसलिए स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग और स्वच्छ शौचालयों की व्यवस्था करने के साथ-साथ कम कीमत वाले सैनिटरी पैड मुहैया कराने पर एक समान नीति वक्त का तकाजा है। इसके समांतर, सरकार को इस सामाजिक जड़ता को दूर करने के लिए भी नीतिगत पहल करने की जरूरत है, जिसके तहत कई समुदायों में आज भी माहवारी को लेकर नकारात्मक धारणाएं हैं। इसका खमियाजा आखिर लड़कियों को ही भुगतना पड़ता है।
दरअसल, कई बार दिखने में पारंपरिक चलन या सामान्य मानी जानी जाने वाली बातें समाज के एक बड़े हिस्से के लिए वंचना का काम करती हैं और यहां तक कि इनकी वजह से उनके अधिकारों का भी हनन होता है। इसलिए ऐसे मामूली दिखने वाले बिंदुओं पर भी गौर करके उसकी जटिलता को दूर करना एक लोक कल्याण का दावा करने वाली सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए।