उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके में महज एक अफवाह के चलते भीड़ के बर्बर व्यवहार की जैसी घटना सामने आई है, वह एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।

अव्वल तो अनेक संस्कृतियों और सामाजिक परंपराओं वाले इस देश में यह बेहद अफसोसनाक है कि किसी समुदाय या व्यक्ति के खानपान को नियंत्रित किया जाए। दूसरे, इस आधार पर अलग-अलग समुदायों के बीच नफरत की राजनीति और हिंसा सभ्य समाज की पहचान नहीं कही जा सकती।

गौरतलब है कि दादरी के बिसारा गांव में एक मुसलिम परिवार के गाय का मांस रखने की अफवाह फैली। फिर खबरों के मुताबिक वहां के मंदिर से इस बात की घोषणा के बाद भीड़ ने उस घर पर हमला कर दिया। घर के मुखिया मोहम्मद अखलाक की र्इंट-पत्थरों से मार कर हत्या कर दी और उसके बेटे को बुरी तरह जख्मी कर दिया।

हालांकि घटना के बाद वहां भारी तादाद में पुलिस बल को तैनात कर दिया गया। पर क्या प्रशासन को इस बात का अंदाजा नहीं था कि पिछले कुछ समय से देश में कैसा माहौल बनता गया है? कुछ दिनों पहले कानपुर के शेखपुर गांव में भीड़ ने मंदिर के सामने एक शख्स को पाकिस्तानी आतंकी बता कर पीट-पीट कर मार डाला।

यह उस भारत का चेहरा नहीं है, जहां सैकड़ों सालों से अलग-अलग धर्मों को मानने वाले समुदायों के बीच एक-दूसरे की संस्कृति का आदर करने की परंपरा रही है। बिसारा गांव में दोनों समुदायों के लोग कई पीढ़ियों से साथ रह रहे हैं, लेकिन ऐसी घटना कभी नहीं हुई। खुद पीड़ित परिवार के मुताबिक हर त्योहार और दावत में उनके हिंदू पड़ोसी घर आते थे। लेकिन पिछले कुछ समय से लगातार भिन्न संप्रदायों के बीच शक और तनाव बनाए रखने की जैसी कोशिश चल रही है, उसमें बहुत कुछ टूट रहा है।

दरअसल, हिंदुत्व के नाम पर जैसी राजनीति चल रही है और बहुत मामूली बातों को तूल देकर हिंसा भड़काने की कोशिश की जा रही है, उसके चलते सहज तरीके से जीवन गुजारने में यकीन रखने वाले लोगों के बीच भी दूसरे समुदायों को लेकर दूरियां बढ़ी हैं। एक खास तरह का आक्रामक माहौल बना दिया गया है, जिसमें किसी अफवाह के आधार पर भी दो समुदायों के बीच हिंसा भड़क उठती है या फिर किसी सामान्य विवाद को भी सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिए अपनी राजनीति चमकाने वाले वे समूह जिम्मेदार हैं, जो धार्मिक ध्रुवीकरण के बूते अपने पांव फैलाना चाहते हैं।

उन्हें शायद इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जमीनी स्तर पर समाज के तानेबाने पर इसका कितना गहरा और दीर्घकालिक असर पड़ता है। विडंबना है कि सरकारों की नींद तब खुलती है, जब मामला हाथ से निकलने लगता है। भारत जैसे देश में ऐसी स्थिति की कल्पना भी दुखद है कि हर धार्मिक समुदाय को एक-दूसरे पर शक, भय और असुरक्षा के बीच जीना पड़े। ऐसी नकारात्मक राजनीति करने वाले दल और सरकारें अगर समय रहते नहीं चेतीं, तो आखिरकार इससे सामाजिक सद्भाव और देश की एकता को क्षति पहुंचेगी।

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