करीब एक सौ चालीस साल पहले बना यह पुल मरम्मत के बाद चार दिन पहले ही खोला गया था। बताते हैं कि दिवाली के बाद की छुट्टियां और रविवार का दिन होने की वजह से उस पुल पर भारी भीड़ इकट्ठा हो गई और वजन सहन न कर पाने से पुल की रस्सियां टूट गर्इं। इस पुल पर लोग सैर-सपाटे के लिए ही जाते हैं। इसके लिए टिकट भी लगता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि पुल की क्षमता करीब डेढ़ सौ लोगों का भार सहन करने की है, जबकि उस पर पांच सौ से अधिक लोग पहुंच गए, जिसकी वजह से पुल टूटा। पुल पुराना पड़ गया था, इसलिए इसे छह-सात महीने बंद रखा गया था। एक निजी कंपनी को इसकी मरम्मत और रखरखाव की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसलिए संबंधित कंपनी को लेकर सवाल अधिक उठ रहे हैं। सात महीने पहले भी लोग उस पुल पर सैर-सपाटे के लिए जाया करते थे, मगर ऐसा हादसा नहीं हुआ। ऐसा क्या हुआ कि मरम्मत के बाद पुल चरमरा कर टूट गया!

सवाल है कि क्या पुल के रखरखाव के लिए तैनात कर्मचारियों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि पुल पर एक समय में कितने लोगों को भेजा जाना चाहिए। ऐसा भी नहीं कि एक बार टिकट लेकर लोग जब तक मर्जी पुल पर घूमते-फिरते रहें। उन्हें अधिकतम आधे घंटे का समय दिया जाता है। उसी के अनुसार टिकट जारी किए जाते और लोगों को बारी-बारी से छोड़ा जाता है।

अगर पुल पर एक जगह अधिक लोग जमा हो गए या पुल के साथ कुछ छेड़छाड़ करते नजर आए, तो उन्हें रोका और उतारा क्यों नहीं गया? एक बार में इतने लोगों को पुल पर भेजा ही क्यों गया? अभी इन सवालों के जवाब जांच के बाद मिलेंगे, मगर इस हादसे ने एक बार फिर पुल बनाने वाली कंपनियों की निष्ठा और तकनीकी पक्षों की अनदेखी को रेखांकित किया है। फिर सवाल यह भी कि क्या आगे वे इससे कोई सबक ले पाएंगी। ऐसे पुल गुजरात के दूसरे शहरों में भी हैं, जिनका निर्माण सैलानियों को आकर्षित करने के लिए किया गया है, क्या उनके रखरखाव और तकनीकी पक्षों पर नए सिरे से ध्यान दिया जा सकेगा?

हर साल बरसात के वक्त देश के विभिन्न शहरों में पुलों के बाढ़ में बह जाने के समाचार आते हैं। इस साल भी कई पुल बाढ़ में बह गए। उनमें से कुछ दो-तीन साल पहले ही बने थे। ऐसी घटनाओं के बाद स्वाभाविक ही लोग पूछते नजर आते हैं कि क्या वजह है कि सौ साल से ऊपर के बने पुल अभी तक बने हुए हैं और नए पुल दो-चार साल में ही जमींदोज हो जाते हैं।

जाहिर सी बात है कि पुलों और सड़कों के निर्माण में भ्रष्टाचार व्याप्त है, जिसके चलते उनमें इस्तेमाल सामग्री की गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा जाता और अधिक से अधिक लाभ कमाने के लोभ में उनकी भार क्षमता आदि का सही मूल्यांकन नहीं किया जाता। इससे संबंधित सरकारों के ईमान पर भी अंगुलियां उठती ही हैं। ऐसे पुल बना कर भले सरकारें कुछ देर को अपनी उपलब्धियों में शुमार कर लेती हैं, मगर इनकी कीमत आखिरकार लोगों को अपना धन और जान गंवा कर चुकानी पड़ती है।