वैसे तो केदारनाथ हादसे के बाद से ही यह सवाल उठता रहा है कि पहाड़ी इलाकों में विकास परियोजनाओं से विनाश का जो खतरा बढ़ता जा रहा है, उसकी कीमत कौन चुकाएगा। बुधवार को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चारधाम राजमार्ग परियोजना का बचाव करते हुए सफाई दी कि हाल में आई आपदा से इस परियोजना का कोई वास्ता नहीं है।

इस परियोजना से जुड़े विवादों पर शीर्ष अदालत में सुनवाई चल रही है। परियोजना की निगरानी के लिए अदालत ने उच्चाधिकार समिति बना रखी है। इस समिति के ही एक सदस्य ने चमोली की आपदा से इस परियोजना को जोड़ते हुए सवाल उठाए हैं। एक गैरसरकारी संगठन की याचिका पर पहले से सुनवाई चल रही है। ऐसे में ज्यादा चिंता की बात यह है कि जिस परियोजना को लेकर पर्यावरणविद और विशेषज्ञ बार-बार चेता रहे हैं और शीर्ष अदालत की उच्चाधिकार समिति के सदस्य भी इस पर अपनी आपत्ति दर्ज करवा चुके हैं, उस परियोजना को सरकार सुरक्षित बता रही है!

दिसंबर, 2016 में शुरू हुई चारधाम परियोजना के तहत गंगोत्री, यमुनोत्री, बदरीनाथ और केदारनाथ को सड़क मार्ग से जोड़ा जाना है। यह राजमार्ग करीब नौ सौ किलोमीटर लंबा होगा। इसके लिए बनी कुल तिरपन परियोजनाओं में से चालीस पर काम चल रहा है और तेरह परियोजनाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। ये मामले राजमार्ग की चौड़ाई और पर्यावरण संबंधी चिंताओं को लेकर हैं। चारधाम परियोजना शुरू से ही विवादों में घिरी है। राष्ट्रीय हरित पचांट (एनजीटी) ने इसे मंजूरी देने से इंकार कर दिया था।

एनजीटी की चिंता सड़क बनाने के लिए पेड़ों की कटाई को लेकर रही। एनजीटी ने सड़क की चौड़ाई साढ़े पांच मीटर रखने को कहा था, जबकि पांच सौ सैंतीस किलोमीटर की जो सड़क अब तक बन चुकी है, उसकी चौड़ाई दस मीटर है। यही वह बिंदु है जो परियोजना पूरी करने की केंद्र व राज्य सरकार की जिद को बताता है। सवाल है कि अगर सरकारें खुद ही एनजीटी को नजरअंदाज करेंगी तो कैसे यह निकाय पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी निभा पाएगा!

कहा जा रहा है कि चारधाम परियोजना धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देगी। इससे भी ज्यादा इसका सामरिक महत्त्व है। उत्तराखंड की चीन के साथ लंबी सीमा है। इसलिए सीमा तक पहुंच बनाने के लिए बेहतर सड़कें होना जरूरी हैं। रेल लाइनों का नेटवर्क भी होना चाहिए। गांव-कस्बों में बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाएं भी पहुंचनी चाहिए। हर गांव और जिला मुख्यालय के बीच संपर्क मार्ग होना जरूरी है।

लेकिन विकास संबंधी परियोजनाओं से अगर पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचता है तो यह फिर विनाश कहा जाएगा और इसकी कीमत यहां के बाशिंदों को ही चुकानी पड़ेगी। उत्तराखंड में छोटी-बड़ी दौ सौ पनबिजली परियोजनाओं पर काम हो रहा है। लोगों ने नदियों के किनारे पर बहुमंजिला इमारतें बनाने के पहले जरा भी नहीं सोचा कि वे आपदा को न्योता दे रहे हैं।

बेहताशा कटाई और निर्माण से पहाड़ खोखले होते जा रहे हैं। निर्माण संबंधी कार्यों से होने वाले कचरे से नदियों में अनवरत जमा हो रही गाद और भी गंभीर संकट है। अब भी वक्त है कि हम वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की चिंताओं पर गौर करें। विकास के लक्ष्यों से ज्यादा फिक्र प्रकृति के संरक्षण की होनी चाहिए, तभी हम सुरक्षित और खुश रह पाएंगे।