समलैंगिक विवाह को मौलिक अधिकार बनाने की मांग स्वाभाविक ही संवैधानिक तकाजे और विवाह संबंधी सामाजिक अवधारणा के बीच बहस का विषय बन गई है। सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर कर केंद्र सरकार ने कहा कि वह समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के पक्ष में नहीं है। भारतीय समाज में विवाह की अवधारणा एक स्त्री और पुरुष के बीच के संबंधों पर आधारित है, जिससे संतानोत्पत्ति हो सके। अगर समलैंगिक विवाह को मान्यता दी जाती है, तो उससे स्वीकृत सामाजिक मूल्यों और व्यक्तिगत कानूनों के बीच का नाजुक संतुलन बुरी तरह प्रभावित होगा।
एक समलैंगिक जोड़े ने सर्वोच्च न्यायालय में अपने विवाह को मान्यता देने की गुहार लगाई थी, जिस पर अदालत ने सरकार से जवाब मांगा था। उसी संबंध में केंद्र का ताजा जवाब आया है। हालांकि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने संबंधी कई याचिकाएं दिल्ली उच्च न्यायालय और दूसरी अदालतों में लंबित हैं। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय में उठे मामले में जो भी फैसला आएगा, वह तमाम ऐसी याचिकाओं में मिसाल बनेगा। केंद्र के हलफनामे के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर विचार के लिए संविधान पीठ का गठन कर दिया है, जो इससे संबंधित संवैधानिक पहलुओं पर विचार करने के बाद किसी निर्णय पर पहुंच सकेगी।
दुनिया के करीब तीस देशों में मान्यता प्राप्त है समलैंगिक विवाह
सरकार के इस तर्क को सिरे से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि भारत जैसे देश में विवाह स्त्री और पुरुष का एक पवित्र बंधन माना जाता है। इसलिए समाज कभी दो समान लिंग के व्यक्तियों का पति-पत्नी की तरह रहना स्वीकार नहीं कर सकता। ऐसे में कोई भी सरकार ऐसा कोई विधान बनाने को तैयार नहीं हो सकती, जो सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध जाता हो। मगर सवाल यह भी है कि जब समाज खुद बदलती स्थितियों के मुताबिक अपने मूल्यों में बदलाव करता रहता है, तो कानूनों में लचीलापन लाने से क्यों परहेज होना चाहिए। दुनिया के करीब तीस देशों में समलैंगिक विवाह को मान्यता प्राप्त है, पर वहां भी लंबे संघर्ष के बाद ही समलैंगिकों को यह अधिकार मिल सका।
इसी तरह भारत में भी साढ़े चार साल पहले तक समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखा गया था, मगर सर्वोच्च न्यायालय ने दो समलैंगिकों को साथ रहने की कानूनी आजादी प्रदान कर दी। पर उन्हें विवाह की इजाजत देने को लेकर कई कानूनी अड़चनें हैं, जो दूसरे विवाहों के लिए बनाए गए हैं। मसलन, घरेलू हिंसा, संबंध विच्छेद के बाद गुजारा भत्ता, ससुराल-मायका, पितृ-मातृधन पर अधिकार जैसे मसले जटिल साबित होंगे। उन देशों में भी इन पक्षों पर उलझन बनी हुई है, जहां समलैंगिक विवाह को मान्यता प्राप्त है।
मगर इसका दूसरा संवैधानिक पहलू यह भी है, जिसके आधार पर विवाह को मान्यता प्रदान करने की गुहार लगाई गई ह, कि जब हर व्यक्ति को अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का मौलिक अधिकार प्राप्त है, तो फिर समलैंगिकों को इससे वंचित क्यों रखा जा सकता है। मगर सरकार इसे मौलिक अधिकार के क्षेत्र में नहीं मानती। सर्वोच्च न्यायालय के सामने यही पेच है, जिसे संविधान पीठ विचार करके सुलझाने का प्रयास करेगी। कई विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि ऐसे जोड़ों को विवाह की कानूनी इजाजत न मिलने से वे न सिर्फ एक मौलिक अधिकार, बल्कि अनेक अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय समलैंगिक जोड़ों के प्रति उस तरह नहीं देख सकता, जिस तरह आम समाज देखता है। इसलिए स्वाभाविक ही उसके फैसले की तरफ निगाहें लग गई हैं।