कर्नाटक विधानसभा चुनाव के प्रचार थम गए हैं। आदर्श आचार संहिता के मुताबिक अब प्रत्याशी केवल घर-घर जाकर संपर्क कर सकते हैं। इस बार चुनाव आचार संहिता को लेकर निर्वाचन आयोग कुछ सजग और सख्त नजर आ रहा है। प्रचार थमने से पहले उसने सभी राजनीतिक दलों को लिखित निर्देश दिया है कि मतदान से एक दिन पहले और मतदान वाले दिन कोई भी राजनीतिक विज्ञापन प्रकाशित नहीं किए जा सकते।

इसके लिए पहले जिलों की मीडिया प्रमाणन और निगरानी समिति से प्रमाणित कराना पड़ेगा। अखबारों के संपादकों को भी पत्र लिख कर ऐसे विज्ञापनों को प्रकाशित करने से इनकार करने को कहा गया है। उन्हें प्रेस परिषद की मीडिया आचार संहिता का स्मरण भी कराया गया है। इससे यह संकेत तो साफ है कि निर्वाचन आयोग मतदान में किसी भी प्रकार से मतदाताओं को भरमाने, लुभाने और मतदान प्रक्रिया को बाधित करने के खिलाफ है।

अगर वह सचमुच अपने अधिकारों का उपयोग करता है, तो राजनीतिक दलों की मनमानियों पर लगाम लग सकती है। देखने की बात है कि वह अपने इस फैसले पर अमल कराने में कितना कामयाब हो पाता है। इसमें अपने निर्देशों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ वह कितनी सख्ती बरतता है।

पिछले कुछ सालों से लगातार निर्वाचन आयोग पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने के आरोप लगते रहे हैं। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह निष्पक्ष और पारदर्शी मतदान प्रक्रिया संपन्न कराए। मगर अक्सर राजनीतिक दल चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते देखे जाते हैं और तमाम शिकायतों के बावजूद निर्वाचन आयोग उनके खिलाफ कोई कड़ा कदम नहीं उठाता।

इस लिहाज से कर्नाटक में निर्वाचन आयोग की यह सख्ती कुछ उम्मीद जगाती है। मगर यह केवल विज्ञापनों के प्रकाशन तक सीमित क्यों रहना चाहिए। राजनीतिक दल केवल अखबारों में विज्ञापन के जरिए मतदाताओं को भ्रमित करने या लुभाने का प्रयास नहीं करते। अब प्रचार के अनेक मंच हैं। सबसे बड़ा मंच तो टेलीविजन है, फिर सोशल मीडिया है।

पिछले कुछ सालों में राजनीतिक दलों में यह प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ी है कि मतदान से एक दिन पहले और मतदान वाले दिन वे तमाम अखबारों में पूरे-पूरे पृष्ठ के विज्ञापन देने लगे हैं। यह आचार संहिता का सरासर उल्लंघन है। इस पर रोक लगनी ही चाहिए। मगर यह भी छिपा नहीं है कि चुनाव प्रचार थमने के बाद विभिन्न राजनीतक दलों के नेता टीवी पर साक्षात्कार देने और बहसों में चुनाव नतीजों को लेकर भ्रामक बयान देने लगते हैं। राजनीतिक दलों के आनुषंगिक संगठन कुछ इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करते हैं, जिनका सीधा राजनीतिक संबंध तो नजर नहीं आता, पर उनका चुनाव से स्पष्ट संबंध होता है।

निर्वाचन आयोग का राजनीतिक विज्ञापनों के प्रकाशन पर रोक संबंधी निर्देश निस्संदेह स्वागत योग्य है, पर अगर वह सचमुच निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को लेकर गंभीर है, तो उसे राजनीतिक दलों और उनके आनुषंगिक संगठनों की उन तमाम गतिविधियों पर भी नजर रखनी और सख्त रुख अख्तियार करना चाहिए जिनका प्रभाव मतदान पर पड़ सकता है।

निर्वाचन आयोग कुछ मामलों में निर्देश जारी करके अपनी अहमियत तो रेखांकित करने का प्रयास करता देखा जाता है, मगर वह दंतहीन शेर ही साबित होता है। जब तक वह किसी राजनीतिक दल, राजनेता या प्रत्याशी के खिलाफ कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं करेगा, राजनीतिक दलों में आचार संहिता के पालन को लेकर भय नहीं बनेगा। अगर निर्वाचन आयोग को अधिकार प्राप्त हैं, तो उसे उनका उपयोग कर अपनी शक्ति दिखानी भी चाहिए।