इसमें कोई दो राय नहीं कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन एक गंभीर संकट बन चुका है। लेकिन जब से इसके भावी त्रासद परिणामों का आकलन सामने आया है तब से बचाव के क्रम में जो भी कवायदें चल रही हैं, उसके समांतर एक मुश्किल यह सामने आ रही है कि विकसित और धनी देश इस समस्या के लिए पर्यावरण और प्रदूषण की स्थिति के बिगड़ने की जिम्मेदारी लेने के बजाय गरीब या विकासशील देशों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते हैं।
यह समस्या को जटिल बनाने में अपनी भूमिका से दुनिया का ध्यान हटा कर दूसरी ओर भटकाने की कोशिश ही है। हालांकि अब विकासशील देशों में भी यह बहस जोर पकड़ चुकी है कि अगर समस्या के गहराते जाने में उनकी भूमिका अपेक्षया काफी कम है तो उन्हें मुख्य जिम्मेदार क्यों बताया जा रहा है। इसलिए स्वाभाविक ही इसी संदर्भ से प्रतिक्रियाएं भी आ रही हैं। यही वजह है कि भारत के प्रधानमंत्री ने भी विकसित देशों को आईना दिखाया है। उन्होंने साफतौर पर कहा कि गरीब और विकासशील देश कुछ विकसित देशों की ‘गलत नीतियों’ की कीमत चुका रहे हैं।
हालांकि भारत पहले भी जलवायु परिवर्तन की गहराती समस्या के मुद्दे पर दुनिया में अपना स्पष्ट पक्ष रखता रहा है, लेकिन अगर आज भी यह सवाल बना हुआ है तो विकसित देशों को अपने रुख पर विचार करना चाहिए। बिगड़ते पर्यावरण के लिए कौन जिम्मेदार है? यह सही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान जलवायु परिवर्तन या बढ़ते तापमान से जुड़ी चिंताएं गहराती गई हैं।
क्योंकि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कारकों पर बातें तो खूब हुई हैं, मगर उन पर रोक के लिए जो उपाय सामने आते रहे, उन पर अमल की जिम्मेदारी दुनिया के गरीब और विकासशील देशों पर ही थोप दी गई। जबकि पर्यावरण के बिगड़ने में जिन कारकों की मुख्य भूमिका रही, उसमें सबसे ज्यादा भागीदारी विकसित और धनी देशों की रही है।
दशकों से यह तथ्य जगजाहिर रहा है कि विश्व के विकसित देशों में विकास के समूचे पैमाने में पर्यावरण की रक्षा कोई सवाल नहीं था और अगर कुछ था भी तो वह विरोधाभासी था। इसमें अकेला जोर इस बात पर दिया गया कि विकास पहले है, पर्यावरण का सवाल बाद में। अगर इस पैमाने में धरती की आबोहवा को गहरा नुकसान पहुंचा, तो उसकी जिम्मेदारी किस पर जाएगी और क्या उसकी भरपाई इतनी आसान होगी?
विडंबना यह है कि सालों से इस मसले पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में विकासशील देशों की ओर से ऐसे सवाल उठाए जाते हैं कि ग्रीनहाउस गैसों या फिर कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन के लिए चूंकि विकसित और धनी देश ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं, इसलिए इसमें कटौती के लिए पहले ही उनकी ओर से ही ठोस कदम उठाए जाने चाहिए।
गरीब देशों को अभी अपने नागरिकों की जरूरतें पूरी करने के लिए बुनियादी ढांचे के विकास की जरूरत है, इसलिए उनसे उम्मीद बाद में की जाए। हालांकि इसके बावजूद गरीब और विकासशील देशों ने अपनी ओर से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में विकसित देशों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशीलता के साथ काम किया है।
यह किसी से छिपा नहीं है कि पर्यावरण में छीजन के लिए जिन कारकों को जिम्मेदार बताया जाता रहा है, उसके लिए कौन-से देश सबसे ज्यादा सार्वजनिक चिंता जाहिर करते हैं और उसका उपयोग और उत्सर्जन किन देशों में ज्यादा होता है। लेकिन विडंबना यह है कि पर्यावरण और जलवायु को संतुलित रखने की जरूरतों को ताक पर रख कर विकसित देशों ने अपने लिए जो सुविधाएं सुनिश्चित कीं, उसकी कीमत अब दुनिया के गरीब और विकाससील देशों से चुकाने की उम्मीद की जाती है।