हमारे देश में अदालतों पर मुकदमों का जैसा बोझ है वैसा दुनिया में कहीं नहीं है। यहां मुकदमे बरसों-बरस खिंचते रहते हैं। तारीख पर तारीख लगती रहती है और वादी-प्रतिवादी फैसले के इंतजार में कचहरी के चक्कर काटते रहते हैं। कई मामले दशकों तक भी खिंच जाते हैं। न्यायिक प्रक्रिया की कछुआ चाल का नतीजा यह हुआ है कि हमारे देश में अदालतें मुकदमों के बोझ से कराह रही हैं। देश भर में लंबित मामलों की कुल तादाद दो करोड़ अठारह लाख से भी ज्यादा हो चुकी है। इनमें से बाईस लाख सत्तावन हजार मामले दस साल से ज्यादा पुराने हैं। मुकदमों का इस कदर घिसटते रहना न्याय के बुनियादी सिद्धांत को ही पलीता लगा देता है।
मुकदमों के निपटारे में होने वाली अतिशय देरी से कैसी अन्यायपूर्ण स्थिति बनती है इसका अंदाजा लगाने के लिए एक ही तथ्य काफी है। भारत की जेलों में बंद लोगों में सत्तर फीसद विचाराधीन कैदी हैं। कुछ कैदियों की हालत तो और भी त्रासद होती है, वे अपने ऊपर लगे अभियोग की अधिकतम सजा काट चुके होते हैं, फिर भी जेल में सड़ते रहते हैं। जाहिर है, अदालतों को मुकदमों के इस भयावह भार से छुटकारा दिलाना तथा न्यायिक प्रक्रिया को तीव्र बनाना एक बड़ा लोकतांत्रिक तकाजा है।
इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि जजों की संख्या बढ़ाई जाए, जिसकी ओर प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर ने एक बार देश का ध्यान खींचा है। रविवार को ओड़िशा हाइकोर्ट के सर्किट पीठ के शताब्दी समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में जजों की संख्या आबादी के अनुपात में बहुत कम है, इसे बढ़ाने की जरूरत है; 1987 में विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि देश में चौवालीस हजार न्यायाधीशों की जरूरत है, जबकि तीस साल बाद आज देश में जजों की तादाद सिर्फ अठारह हजार है।
कुछ दिन पहले भी न्यायमूर्ति ठाकुर ने यह मसला उठाया था; तब प्रधानमंत्री की मौजूदगी में जजों की कमी का रोना रोते हुए सचमुच उनके आंसू निकल आए थे। विधि आयोग अपनी हर रिपोर्ट में जजों की संख्या बढ़ाने की वकालत करता आया है। लेकिन संख्या बढ़ाना तो दूर, जजों के स्वीकृत पद भी समय से नहीं भरे जाते। हाल यह है कि उच्च न्यायालयों में जजों के करीब आधे पद खाली हैं। विभिन्न न्यायाधिकरणों का भी यही हाल है। लिहाजा, पहली जरूरत तो यह है कि रिक्त पद जल्दी से जल्दी भरे जाएं। दूसरे, जजों की संख्या बढ़ाई जाए। तीसरे, सर्वोच्च न्यायालय के चार क्षेत्रीय पीठ कायम किए जाएं और सर्वोच्च अदालत संवैधानिक पीठ के तौर पर काम करे, जैसी कि मूल परिकल्पना थी। चौथे, न्यायिक कार्य संस्कृति में कुछ ठोस सुधार हों। मसलन, दो तारीखों के बीच अधिकतम अंतराल तय हो और बेजा हड़तालों पर अंकुश लगे।
फिर, हमें यह भी सोचना होगा कि मुकदमे पैदा होने की गुंजाइश कैसे कम की जाए। बहुत-से मुकदमे प्रशासनिक स्तर पर शिकायतों का निपटारा न होने या न्याय न मिलने से पैदा होते हैं। फिर लोग अदालत की शरण में जाते हैं। मुकदमों की एक बड़ी संख्या जमीन संबंधी झगड़ों की देन होती है। अगर भूमि से संबंधित रिकार्ड साफ और दुरुस्त कर दिए जाएं, तो ऐसे ज्यादातर मुकदमों की गुंजाइश ही नहीं बचेगी। जाहिर है, जजों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ कुछ और भी काम करने होंगे। न्यायिक सुधार के लिए प्रशासनिक सुधार का भी बीड़ा उठाना होगा।