छत्तीसगढ़ के कांकेर में एक अधिकारी का मोबाइल फोन बांध के पानी में गिरा तो अधिकारी के सब्र का बांध ही टूट गया। उसने पंप लगा कर पूरे जलाशय को उलीचना शुरू कर दिया। गनीमत थी कि मोबाइल मिल गया, वरना अधिकारी महोदय जलाशय को पूरा ही सुखा डालते। बताया जा रहा है कि चार हजार एक सौ चार घन मीटर यानी इकतालीस लाख लीटर पानी बहा, तब जाकर उनके मोबाइल के दर्शन हुए और फिर जाकर उनको सुकून मिला।
निस्संदेह मोबाइल महंगा और महत्त्वपूर्ण रहा होगा, तभी तो अधिकारी महोदय ने उसे तलाशने में यह विवेक भी खो दिया कि इस गर्मी के मौसम में इतने पानी से कितने लोगों की प्यास बुझ सकती थी, कितने खेतों की फसलें जी उठतीं। मगर फिर बात यह भी है कि वह अधिकारी ही क्या, जो अपने अधिकार का उपयोग और दुरुपयोग न करे।
बताया जा रहा है कि साहब कुछ दोस्तों के साथ उस बांध पर सैर-सपाटे के लिए गए थे। मोबाइल से आत्मछवि उतार रहे थे कि मोबाइल हाथ से फिसल कर जलाशय में लीन हो गया। बस, साहब का कोप उस जलाशय पर फूटा और उन्होंने उसे कुछ उसी प्रकार उसे सुखा डालने का संकल्प ले लिया, जैसे राम ने समुद्र को सुखाने का लिया था। बस, आनन-फानन पंप मंगाए गए और उलीच दिया गया जलाशय। जाहिर है, इससे दोस्तों पर साहब का रोब भी पड़ा होगा।
जिन साहब का फोन जलाशय में गिरा था वे छत्तीसगढ़ में खाद्य निरीक्षक के पद पर तैनात थे। अब वे उस पद पर नहीं हैं। वहां के जिलाधिकारी को जब इस घटना की खबर मिली तो उन्होंने उन साहब को निलंबित कर दिया। शायद उन साहब ने सोचा भी न होगा कि जिलाधिकारी महोदया उनके इस फैसले पर इस कदर कुपित हो जाएंगी।
उन्हें निलंबित करने के पीछे तर्क दिया गया है कि उन्होंने बांध का पानी उलीचने के लिए संबंधित अधिकारी से आज्ञा नहीं ली थी। उन अधिकारी महोदय के भीतर कहीं न कहीं यह भरोसा रहा होगा कि एक अधिकारी दूसरे अधिकारी के मन की पीड़ा समझता ही है, तो फिर इतने भर से काम के लिए उसे अनुमति देने-लेने की झंझट में क्यों डाला जाए। इसलिए उन्होंने उस अधिकारी की तरफ से भी खुद ही फैसला ले लिया। ऐसे फैसले तो प्रशासन में लेने ही पड़ते हैं, लिए ही जाते हैं, वरना व्यवस्था चलने ही न पाए! एक अधिकारी दूसरे अधिकारी का समर्थन न करे या अपने आप उसका समर्थन न प्राप्त कर ले, तो फिर वह काम ही कैसे करेगा।
हालांकि छत्तीसगढ़ के संबंधित अधिकारी महोदय का मोबाइल तलाश अभियान प्रशासनिक अधिकारियों के अपने शक्ति प्रदर्शन का एक उदाहरण भर है। पिछले साल की ही तो बात है, जब दिल्ली के अक्षरधाम वाले खेल गांव परिसर में एक अधिकारी महोदय ने स्टेडियम में अभ्यास कर रहे खिलाड़ियों को इसलिए हुलकार कर निकाल दिया कि वहां उनके कुत्ते के घूमने का वक्त हो गया था।
दरअसल, हमारे प्रशासनिक अधिकारियों को कार्य संस्कृति अंग्रेजी हुकूमत से विरासत में मिली है और उन्हें इस बात का अभिमान है कि उन्होंने उसे नष्ट नहीं होने दिया, बल्कि कुछ समृद्ध ही किया है। ऐसे में छत्तीसगढ़ वाले अधिकारी महोदय ने जो किया वह हैरान करने वाला नहीं। इसी हनक के चलते तो अधिकारियों का आम जन पर रोब-दाब बना रहता है। जनता का क्या है, वह तो भूखी-प्यासी रहने की अभ्यस्त है, रह लेगी।