उत्तर प्रदेश में विद्यार्थियों के आंदोलन के आगे सरकार को झुकना पड़ा है तो जाहिर है कि परीक्षाओं के आयोजन से संबंधित उनकी मांगें उचित थीं। हैरानी की बात है कि उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग के पास इतना बड़ा तंत्र होने के बावजूद उसके प्रतियोगिता परीक्षाओं के आयोजन पर सवाल उठते हैं, उसके प्रश्न-पत्र भी बार-बार लीक हो जाते हैं। नतीजतन, उसे परीक्षाएं रद्द करनी पड़ती हैं। अगर विद्यार्थी एक दिन में या एक पाली में परीक्षाएं कराने की मांग कर रहे हैं, मानकीकरण के पैमाने पर सवाल उठा रहे हैं, तो इस पर विचार करने में सरकार को इतनी देर लगाने की जरूरत क्यों पड़ी?
आयोग ने सकारात्मक फैसला लेकर एक जरूरी कदम उठाया है
परीक्षा के जिन पहलुओं के बारे में आयोग को पहले से पता होना चाहिए था, वे उसे आंदोलन के बाद क्यों समझ में आए? क्या आयोग को अपनी सुविधा से अधिक परीक्षा की पारदर्शिता और विद्यार्थियों के भविष्य की चिंता नहीं करनी चाहिए? फिलहाल आयोग ने विद्यार्थियों की मांगों पर सकारात्मक फैसला लेकर एक जरूरी कदम उठाया है।
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इतना साफ है कि आयोग ने अपना फैसला बदला है, तो विद्यार्थियों की मांगों के पीछे ठोस आधार था। हालांकि आरओ और एआरओ परीक्षा टाले जाने और इसके लिए एक समिति बनाने के निर्णय से छात्र निराश हैं। दरअसल यह तय नहीं है कि समिति इस मसले पर अपनी रपट कब देगी। इसलिए ऐसा लगता है कि विद्यार्थियों और आयोग के बीच अभी गतिरोध बना रहेगा। सरकार प्रतियोगी परीक्षाओं और उनके परिणाम को लेकर अभ्यर्थियों या विद्यार्थियों से धैर्य रखने की उम्मीद करती है। मगर विद्यार्थी भी यह अपेक्षा करते हैं कि परीक्षाओं में शुचिता कायम रहे और ये बार-बार रद्द न हों या पर्चाफोड़ जैसी स्थितियां पैदा न हों।
जब ऐसा नहीं होता तो उनके भीतर क्षोभ पैदा होता है। इस बार विद्यार्थी इसलिए भी नाराज थे कि परीक्षाएं दो पालियों में हो रही थीं और वे प्रारंभिक परीक्षा एक ही दिन कराने की मांग पर अडिग थे। उन्हें यह भी लग रहा था कि ‘नार्मलाइजेशन’ के फार्मूले से उन्हें काफी नुकसान होगा और बहुत कुछ आयोग के हाथ में चला जाएगा। वैसे भी यह प्रक्रिया जटिल है। इस समूचे मामले में आयोग की जो भी दलील हो, लेकिन इसकी आड़ में उसे लाखों युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए!