जाति-पंचायतों पर कानूनी लगाम लगाने की महाराष्ट्र सरकार की पहल सराहनीय है। हमारे देश में बहुत सामाजिक विविधता है। बहुत-सी परंपराएं और रिवाज हैं। बहुत सारी रूढ़ियां और स्थानीय मान्यताएं हैं और उन पर चलने वाले बहुत सारी संस्थाएं और समूह हैं। जाति-पंचायतें भी हमेशा हमारी पारंपरिक सामाजिक संरचना का हिस्सा रही हैं। लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब वे लोकतांत्रिक मूल्यों और संविधान में दिए गए व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के खिलाफ नजर आती हैं। किसी को भी, चाहे वह व्यक्ति हो या संगठन, इस हद तक जाने की इजाजत कैसे दी जा सकती है?

अदालतों ने जाति-पंचायतों के तुगलकी फरमानों के खिलाफ समय-समय पर फैसला सुनाया है और इन पर पाबंदी लगाने की हिदायत दी है। कई बार मानवाधिकार आयोग ने भी दखल दिया है। अलबत्ता इस दिशा में कानून बनाने की पहल महाराष्ट्र सरकार ने की है। इसका बहुत कुछ श्रेय राज्य की अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति को भी जाता है जिसने प्रस्तावित कानून का प्रारंभिक मसविदा बना कर राज्य सरकार सौंपा। यों इस दिशा में दो साल पहले भी पहल हुई थी।

कांग्रेस-राकांपा की साझा सरकार ने जाति-पंचायतों पर नकेल कसने के लिए एक परिपत्र जारी किया था, जिसमें कुछ धाराओं के तहत अपराध दर्ज करने की व्यवस्था की गई थी। लेकिन वह कदम मुकम्मल कानून की शक्ल नहीं ले पाया। राज्य में भाजपा की सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भरोसा दिलाया था कि वे छह महीनों के भीतर जाति-पंचायत विरोधी कानून बनाएंगे। इस आश्वासन पर डटे रहना आसान नहीं था, क्योंकि राजनीतिकों का रवैया इस मामले में ढुलमुल रहा है। वोट के चक्कर में वे कभी जाति-पंचायतों के खिलाफ खुल कर नहीं बोलते; जब इन पंचायतों के फैसले बेहद अमानवीय और क्रूर होते हैं तब भी वे चुप्पी साधे रहते हैं।

राजनीति का मतलब किसी भी तरीके से समर्थन जुटाना भर नहीं होता, जनमत बनाना या जनमत को बदलना भी होता है। यह दूसरी भूमिका कहीं ज्यादा वांछनीय है। लेकिन जाति-पंचायतों के मामले में राजनीतिक पार्टियों का रवैया इस तकाजे के विपरीत रहा है। ऐसी पंचायतें अगर दहेज-निषेध और शादी-ब्याह में किफायतशारी जैसे सामुदायिक सुधार के मामलों तक सीमित रहें, और अपना व्यवहार अहिंसक रखें, तो कानून से उनका टकराव न हो। मगर वे प्रेम विवाह करने वाले जोड़ों को जाति या गांव से बहिष्कृत करने, उनके विवाह को अवैध घोषित करने, उनके परिवारों पर बेजा दबाव डालने, लड़कियों के मोबाइल रखने पर रोक लगाने, कई बार बलात्कार के मामलों में पीड़ित पक्ष पर दबाव डाल कर तथाकथित समझौता कराने और आरोपी को बचाने की हद तक चली जाती हैं। जाति-पंचायतों की ऐसी कारगुजारियों के लिहाज से हरियाणा अव्वल रहा है। पर दूसरे राज्यों में भी वैसी बहुत-सी घटनाएं होती रही हैं। प्रगतिशील आंदोलनों का गढ़ रहे महाराष्ट्र में भी, जहां अंतर-जातीय विवाह करने पर जाति-बहिष्कृत करने और अन्य ‘सजाएं’ सुनाने के ढेरों मामले हैं। यहां तक कि पांच साल पहले एवरेस्ट फतह करने वाले राहुल येलंगे और उनकी