उमेश पाल हत्याकांड में जिस तरह उत्तर प्रदेश पुलिस ने सक्रियता दिखाई है, निस्संदेह उससे अपराधियों पर मानसिक दबाव बना है। फरवरी में उमेश पाल की दिन दहाड़े घेर कर हत्या कर दी गई थी। वे अपने बहनोई और विधायक राजूपाल की हत्या के एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी थे। राजूपाल की हत्या में माफिया अतीक अहमद का हाथ बताया गया था। फिर उमेश पाल की हत्या में भी अतीक के ही लोग देखे गए थे।

उनमें खुद अतीक अहमद का बेटा भी शामिल था। इस हत्याकांड में शामिल दो बदमाश पहले ही मुठभेड़ में मारे जा चुके थे। अब अतीक अहमद का बेटा और उसका एक साथी बदमाश भी मुठभेड़ में मार गिराए गए हैं। दोनों पर पांच-पांच लाख रुपए का इनाम घोषित था। उमेशपाल की हत्या के बाद ये दोनों विभिन्न शहरों में छिपते फिर रहे थे। इसी क्रम में वे दिल्ली भी पहुंचे थे।

दिल्ली पुलिस ने इन्हें पनाह देने वाले कुछ हथियार तस्करों को पकड़ा और उत्तर प्रदेश के विशेष पुलिस दल को सौंप दिया था। उनसे पूछताछ के आधार पर ही उत्तर प्रदेश पुलिस इन दोनों बदमाशों तक पहुंची थी। स्वाभाविक ही उमेशपाल हत्याकांड से जुड़े बदमाशों के इस तरह मुठभेड़ों में मारे जाने से उत्तर प्रदेश में सक्रिय दूसरे संगठित अपराधियों को कड़ा सबक मिला है।

पुलिस अगर अपराधियों पर शिकंजा कसने में संजीदगी दिखाए, तो सचमुच अपराधमुक्त समाज बनाया जा सकता है। मगर हकीकत यह है कि हर सरकार अपराधमुक्त समाज बनाने का दम तो भरती है, मगर हर बार कुछ नए किस्म के अपराधी भी पनपते देखे जाते हैं। अतीक अहमद का इतिहास किसी से छिपा नहीं है। पिछले दिनों उसके अलग-अलग ठिकानों पर पड़े छापों से जो नगदी और बेनामी संपत्ति के कागजात जब्त हुए, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसने अपने बाहुबल से किस तरह कानून-व्यवस्था को पंगु बना रखा था।

फिलहाल वह जेल में है और उसके खिलाफ अदालत में सुनवाई चल रही है, मगर इससे पहले वह किस तरह न सिर्फ बेखौफ आपराधिक गतिविधियों को अंजाम दे रहा था, बल्कि कानून-व्यवस्था पर भी दबाव बनाए हुए था। अतीक अहमद के गुनाहों और उसकी दबंगई से पुलिस भी अनजान नहीं थी, मगर वह बेखौफ विचरता रहा, तो इसलिए कि उसे राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था। वह खुद भी राजनीति में प्रवेश कर चुका था। अतीक अकेला ऐसा माफिया नहीं है, ऐसे अनेक बाहुबली हैं, जो राजनीतिक संरक्षण में संगठित अपराध करते रहे हैं।

अच्छी बात है कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने उत्तर प्रदेश को अपराधमुक्त बनाने के अपने संकल्प पर अडिग रहते हुए राजनीतिक संरक्षण में अपराध कर रहे बाहुबलियों पर शिकंजा कसना शुरू किया और उसी के फलस्वरूप उमेशपाल हत्याकांड में शामिल बदमाशों के मारे जाने की यह ताजा घटना हुई। मगर यह सवाल फिर भी बना हुआ है कि आखिर राजनीतिक दल ऐसे अपराधियों से दूरी बनाना कब शुरू करेंगे। जब तक राजनीतिक दलों में आपराधिक वृत्ति के लोगों की पैठ नहीं रुकेगी, ऐसे बदमाश पनपते ही रहेंगे।

ऐसा नहीं हो सकता कि विपक्षी खेमे के बदमाशों को लेकर चौकसी बरती जाए और अपने करीबियों को लेकर चुप्पी। यह अकारण नहीं है कि हर विधानसभा और लोकसभा चुनाव के बाद सदन में पहुंचने वाले प्रतिनिधियों में आपराधिक पृष्ठभूमि के सदस्यों की संख्या कुछ बढ़ी हुई ही दर्ज होती है। जब तक राजनीतिक संरक्षण मिलता रहेगा, न तो इस तरह की राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला रुकेगा और न पूरी तरह अपराधियों पर लगाम लगाना संभव हो सकेगा।