राजस्थान में मुख्यमंत्री का नाम घोषित होने के साथ ही कयासों का सिलसिला थम गया है। अनुमान लगाए जा रहे थे कि वरिष्ठ नेताओं में से किसी को कमान सौंपी जाएगी, मगर हुआ इसके ठीक उलट। पहली बार विधायक चुने गए भजन लाल शर्मा वहां के मुख्यमंत्री होंगे। ऐसे ही चौंकाने वाले निर्णय मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी लिए गए। मध्यप्रदेश में कई नामों को लेकर अटकलें लगाई जा रही थीं।

भाजपा की विजय के पीछे शिवराज सिंह चौहान के कामकाज और योजनाओं का बड़ा हाथ माना जा रहा था। केंद्र से मंत्री पद छोड़ कर गए नेताओं में से किसी को पुरस्कृत करने की भी चर्चा चल रही थी। मगर वहां मोहन यादव को सूबे की जिम्मेदारी सौंप कर भाजपा ने सबको चौंका दिया। छत्तीसगढ़ में हालांकि विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल माना जा रहा था, इसलिए उनके चुनाव पर लोगों को उतनी हैरानी नहीं हुई।

मगर राजस्थान और मध्यप्रदेश की कमान बिल्कुल अल्पज्ञात नेताओं को सौंप कर भाजपा नेतृत्व ने लोगों को विस्मित कर दिया। हालांकि इससे पहले भी गुजरात, उत्तराखंड, हरियाणा आदि राज्यों में भाजपा इसी तरह के साहसिक और चौंकाने वाले फैसले कर चुकी है। इसकी कुछ वजहें स्पष्ट हैं।

आमतौर पर राजनीतिक दल नेताओं की वरिष्ठता और अनुभव आदि को ध्यान में रख कर मुख्यमंत्री, मंत्री और अन्य पदों पर उनकी नियुक्तियों का फैसला करते हैं। मगर भाजपा इस फार्मूले पर नहीं चलती। उसके लिए संगठन सर्वोपरि है। जो संगठन के लिए निष्ठावान कार्यकर्ता की तरह काम करता है, उसे पुरस्कृत किया जाता है। संगठन में खेमेबंदी करने वालों को प्राय: किनारे कर दिया जाता है।

इसी का दंड शायद शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को भुगतना पड़ा है। राजस्थान में वसुंधरा राजे ने मान लिया था कि उनकी अगुआई के बिना भाजपा का चुनाव जीतना मुश्किल होगा। फिर केंद्रीय नेतृत्व के साथ उनके रिश्ते भी मधुर नहीं थे। मगर जब राजस्थान में भाजपा चुनाव जीत गई, तो उन्होंने अपने खेमे के नेताओं की लामबंदी शुरू कर दी और इस तरह दबाव बनाने का प्रयास किया कि मुख्यमंत्री का पद उन्हें ही मिलना चाहिए।

मगर भाजपा ने भजन लाल शर्मा को आगे करके स्पष्ट संदेश दे दिया है कि खेमेबंदी करने वालों की संगठन में कोई अहमियत नहीं है। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के बारे में भी यही माना जा रहा था कि वहां उनका कोई विकल्प नहीं हो सकता। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह अपने पुराने कार्यकाल के दागों से मुक्त नहीं थे, इसलिए उनकी दावेदारी वहां थी ही नहीं।

भाजपा ने इन तीनों राज्यों में बिना किसी मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव लड़ा था। मध्यप्रदेश में जरूर उसकी सरकार थी, मगर शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया था। इस तरह पहले से तय था कि वहां नेतृत्व परिवर्तन होगा। नए चेहरे को आगे करने का फायदा यह भी मिलता है कि पहले के नेतृत्व के साथ जो कुछ अनियमितताएं, खराब नीतियां और फैसले जुड़े होते हैं, वे हाशिये पर चली जाती हैं।

लोग नए चेहरे से नई उम्मीदें पालना शुरू कर देते हैं। इस तरह पुराने दाग-धब्बे धुंधले पड़ जाते हैं। उत्तराखंड और गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन कर भाजपा ने इसका लाभ उठाया भी है। फिर सबसे बड़ी बात कि इस तरह भाजपा दूसरे राजनीतिक दलों से खुद को अलग खड़ी कर पाती है कि उसमें किसी भी नेता को नेतृत्व सौंपा जा सकता है, वरिष्ठता, लोकप्रियता या पार्टी नेताओं में पकड़ कोई पैमाना नहीं।