बिलकिस बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला गुजरात सरकार के पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर कठोर प्रहार है। अदालत ने दोषियों को दो हफ्ते के भीतर समर्पण करने का आदेश दिया है। इसके साथ ही अदालत को गुमराह करने और हक हड़पने को लेकर गुजरात सरकार को कड़ी फटकार लगाई है।

पिछले साल पंद्रह अगस्त को गुजरात सरकार ने बिलकिस बानो से सामूहिक बलात्कार करने वाले ग्यारह दोषियों की उम्र कैद की सजा माफ कर दी थी। तब इसे लेकर खासा रोष देखा गया था। उस फैसले को रद्द करने की सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गई थी। तब अदालत ने राज्य सरकार से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा, मगर उसने उस फैसले को उचित ठहराया था।

इस संबंध में केंद्र सरकार ने भी उसका समर्थन किया था। फिर बिलकिस बानो की अपील पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि दोषियों की सजा माफी का अधिकार गुजरात सरकार के पास था ही नहीं। चूंकि इस मामले की पूरी सुनवाई महाराष्ट्र में हुई थी, इसलिए इसका फैसला वही कर सकती थी। मगर गुजरात सरकार ने अदालत के सामने गलत तथ्य पेश कर वह हक हड़प लिया।

बिलकिस मामले में गुजरात सरकार का रुख शुरू से ही पक्षपातपूर्ण देखा गया था। जब दोषी जेल में थे, तब भी उन्हें लंबे-लंबे समय के लिए पेरोल पर बाहर आने की इजाजत दी गई। यह ठीक है कि राज्य सरकारों को कुछ मामलों में दोषियों की सजा माफ करने का अधिकार है, मगर इससे उनके विवेक की भी परीक्षा होती है कि वे किस प्रकृति के मामले में अपने विशेष अधिकार का उपयोग कर रही हैं।

बिलकिस का मामला सामान्य अपराध नहीं था। गुजरात दंगों के समय ग्यारह लोगों ने उससे बलात्कार किया। उस समय उसके गर्भ में पांच महीने का बच्चा था। फिर उसके सामने ही उसके परिवार के सात लोगों की हत्या कर दी गई, जिनमें उसकी तीन साल की बेटी भी थी। समझना मुश्किल नहीं है कि उस घटना का बिलकिस के मन पर क्या असर पड़ा होगा।

किस पीड़ा, त्रास और भयावह स्थितियों से उसने अपने आप को उबारने की कोशिश की होगी। ऐसी बर्बर घटना के दोषियों की सजा माफ करने पर विचार करते हुए राज्य सरकार से विवेकपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा की जाती थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा भी है कि अधिकार केवल दोषियों के नहीं होते, पीड़िता के भी होते हैं। समझना मुश्किल है कि राज्य सरकार को दोषियों की कथित पीड़ा तो समझ में आई, मगर बिलकिस का दर्द क्यों महसूस नहीं हुआ।

गुजरात सरकार के इस फैसले की कई दृष्टियों से आलोचना हुई थी। इसके पीछे राजनीतिक मकसद भी देखे गए थे, जो दोषियों के रिहा होते ही दिखाई भी दिए। दोषियों का माला पहना कर स्वागत किया गया, मानो वे किसी जघन्य अपराध के दोषी नहीं, बल्कि उन्होंने कोई वीरोचित कार्य किया हो। इस तरह उनकी सजा माफ कर न सिर्फ उन्हें निर्दोष साबित करने, बल्कि समाज में उनका महिमामंडन करने का भी प्रयास हुआ था।

ऐसे बलात्कार और हत्या करने, सामाजिक विद्वेष फैलाने वालों की सजा माफी और स्वागत किसी भी सभ्य समाज की निशानी नहीं मानी जा सकती। इससे समाज में गलत संदेश जाता है। ऐसे आपराधिक वृत्ति के लोगों को उकसावा मिलता है। गुजरात सरकार के फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी स्वाभाविक है। आखिर इस तरह के पक्षपातपूर्ण फैसले करने वाली सरकार को कल्याणकारी और महिलाओं की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध कैसे माना जा सकता है!