आखिरकार बिहार विधानसभा चुनाव की खातिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भीतर सीटों के बंटवारे को लेकर सहमति बन गई। इस तरह राजग ने अपने सामने खड़ी एक बड़ी चुनौती से पार पा लिया है। बिहार विधानसभा चुनाव का मंजर ऐसा है कि किसी भी पार्टी के लिए अकेले मैदान में उतरना काफी जोखिम भरा होगा। इसी हकीकत ने लंबे समय तक एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को एक किया और इसी ने राजग के घटकों को जोड़े रखा। किसी भी चुनाव में गठबंधन के भागीदार दलों के बीच सीटों का बंटवारा आसान नहीं होता। इसलिए भाजपा और उसके सहयोगी दलों के बीच कुछ दिनों तक जो रस्साकशी और मान-मनौवल का दौर चला वह हैरत की बात नहीं है।

पर प्रतिद्वंद्वी खेमे के बरक्स यह गतिरोध लंबा खिंचा। राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (एकी) और कांग्रेस के बीच सीटों का बंटवारा पहले ही हो चुका था। इसमें विलंब के कारण राजग की चुनावी तैयारी पर एक हद तक असर पड़ा होगा, जिसकी भरपाई उसे करनी होगी। दरअसल, देरी के पीछे भाजपा और उसके सहयोगी दलों का अपना-अपना गणित रहा है। भाजपा चाहती थी कि वह कम से कम इतनी सीटों पर उम्मीदवार उतारे कि अकेले सरकार बना सके, या सहयोगी दलों पर उसकी निर्भरता कम से कम रहे। वहीं राजग के अन्य दल चाहते थे कि उन्हें कम से कम इतनी सीटें हासिल हों कि क्षेत्रीय दल के रूप में उनकी अहमियत बनी रहे। आखिरी बखेड़ा रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी के बीच दलित आधार की दावेदारी का था।

मांझी चाहते थे कि उन्हें पासवान के बराबर सीटें मिलें। पर मोल-तोल करने की उनकी ताकत बहुत घट गई थी, क्योंकि जनता दल (एकी) के जिन विधायकों को लेकर वे अलग हुए थे उनमें से कई भाजपा में शामिल हो गए। उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने एक समय उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने की मांग उठाई थी। पर रालोसपा को लोक जनशक्ति से करीब आधी सीटें ही मिल पाई हैं। असल में इस मामले में लोकसभा चुनाव फार्मूला चला है। लोकसभा चुनाव में लोजपा को रालोसपा से दुगुनी सीटें हासिल हुई थीं। सोमवार को की गई घोषणा के मुताबिक बिहार विधानसभा की दो सौ तैंतालीस सीटों में से भाजपा एक सौ साठ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी।

लोक जनशक्ति पार्टी चालीस सीटों पर लड़ेगी और रालोसपा तेईस सीटों पर, वहीं मांझी के हिंदुस्तान अवाम मोर्चा को केवल बीस सीटों की उम्मीदवारी से संतोष करना पड़ा है। सीटों के बंटवारे को संतोषजनक परिणति तक ले जाना भाजपा के लिए बिहार में राजग को बचाने के अलावा चुनाव के सामाजिक समीकरण के मद्देनजर भी जरूरी था, जो कि किसी अन्य राज्य की तुलना में बिहार में ज्यादा असर दिखाते रहे हैं। बिहार में भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा पेश नहीं किया है, वह एक बार फिर मोदी के ही भरोसे है। पर वह यह भी जानती है कि केवल मोदी के सहारे बिहार फतह करने का सपना पूरा नहीं हो सकता। चुनाव प्रचार में भाजपा के लिए मोदी का कोई विकल्प नहीं है, पर बिहार की चुनावी लड़ाई सामाजिक समीकरण की भी है। राजग में सीटों के बंटवारे पर सहमति इसीलिए मायने रखती है।

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